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________________ - श्री ज्ञानमुनि (कुशल प्रवक्ता, अनेक पुस्तकों के लेखक, प्राकृत-संस्कृत आदि विभिन्न भाषाओं के विद्वान् कवि, प्रभावशाली जैन संत ] व्यक्तित्व-विश्लेषण आचार्य श्री आनन्दऋषि जी, अपनी नजर में NA आचार्य शब्द का अर्थ है-आ मर्यादया चर्यते इति आचार्यः । अर्थात् जिस महापुरुष का आचरण मर्यादा-पूर्ण होता है, उसे आचार्य कहते हैं। आचार्यदेव मर्यादा की आँखों से देखते हैं, मर्यादा की रसना से बोलते हैं, मर्यादा के कानों से सुनते हैं और मर्यादा के पाँवों से चलते हैं। अधिक क्या, आचार्यप्रवर की सब प्रवृत्तियाँ मर्यादा की छत्र-छाया तले ही सम्पन्न होती हैं। इसीलिए जैन-दर्शन आचार्यपद को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है। हमारे महामहिम आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के चरणों में जिस किसी व्यक्ति को भी बैठने का अवसर मिला है, वह यह अच्छी तरह जानता है कि आचार्यपद की शाब्दिक अर्थविचारणा पूज्य आचार्यदेव के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ हो रही है। जब आचार्यश्री पंजाब पधारे थे और इनका जम्मू (कश्मीर) में चातुर्मास था तो उस समय इनके पुनीत चरणों में रहने का इस सेवक (लेखक) को भी अवसर मिला था। मैंने आचार्यश्री के जीवनशास्त्र का निकट से परिशीलन किया है। इसी कारण मैं बिना किसी झिझक के कह सकता हूँ कि आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज साधु-मर्यादा की सजीव प्रतिमा हैं, इनके जीवन-भवन में संयम-मर्यादा के दीपक सदा जगमगाते रहते हैं। हमारे श्रमण संघ को आचार्यश्री के मर्यादा पूर्ण जीवन पर महान् गौरव है। यह भी वस्तुस्थिति है कि इनके मर्यादित आचार-विचार की समुज्ज्वलता से साधुजगत भी आज अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है। कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनि जी महाराज के शब्दों में यदि कहैं तो-'श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को यदि स्वर्ण-कंकण की उपमा दी जाए तो निश्चित ही आचार्यपाद पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज उस स्वर्ण-कंकण में जटित सर्वाधिक दीप्तिमान तेजस्वी मणि के रूप में देखे जा सकते हैं। आचार्यश्री के सरल, विनम्र एवं निर्मल व्यक्तित्व की शुभ आभा ने न केवल उस मणि के अपने वैयक्तिक गौरव को बढ़ाया है, अपितु उससे स्वर्ण-कंकण को भी गौरव-मण्डित किया है। पूज्य आचार्यश्री की गुणसम्पदा श्री स्थानाङ्गरात्र के छठे स्थान के अनुसार आचार्य में छः बातों का होना नितान्त आवश्यक है।' महामना आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के आचार्य-जीवन में ये छः बातें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही हैं। वे छः बातें इस प्रकार हैं १. श्रद्धावान-आचार्यपद का वही व्यक्ति अधिकारी हो सकता है जिसका अन्तर्जगत श्रद्धा और NE १ सड्ढी, सच्चे, मेहावी बहुस्सुए, सत्तिमं अप्पाधिकरणे । -स्थानांग सूत्र ६ निन्दा अन्धाआनन्दER Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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