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________________ AMRARIAN . nu ......hadanADD . .. LAA AAAA .. . . आचार्यप्रवभिन आचार्यप्रवभिन श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्दा ६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हो, उसका अहित न हो। शास्त्र की भाषा में वे सव्वभूय हियदंसी-सर्वभूत-हितदर्शी हैं, प्रत्येक प्राणी का हित करने वाले हैं। श्रमण संघ का इतना विशाल संगठन और उसका गुरुतर दायित्व उनके कन्धों पर है, संगठन में अनुशासन मुख्य होता है और अनुशासन में कठोरता बरतनी होती है। लेकिन आश्चर्य होगा कि वे आचार्य जैसे गुरुतर पद का महान उत्तरदायित्व सम्भालते हुए भी, संगठन को सुचारु रूपेण निबाहते हुए भी, कभी कठोरता नहीं बरतते । उनका मन फूलों-सा कोमल है, उनका दिल मां के समान करुणा है । लगता है वे सच्चे करुणाशील सन्त हैं। __ आचार्यप्रवर का कर्तव्य विराट् है, बहुरंगा है, इसलिए उसे इन्द्र-धनुषी व्यक्तित्व कहना अधिक उपयुक्त होगा । वे श्रमण हैं, आचार्य हैं, अनुशास्ता हैं, शिक्षा-प्रसारक हैं, विद्याप्रेमी हैं, विद्वान हैं, कुशल प्रवचनकार हैं, दीन-दुखी मानवता के सच्चे हितैषी हैं, सरल हैं और एक महापुरुष की भाँति पूजा-अर्चाप्रतिष्ठा-सम्मान पाते हुए भी बड़े विनम्र, उदार और सात्विक वृत्ति के संत हैं। भारत की ऋषि-परम्परा के वे सच्चे महर्षि हैं, उस महर्षि के चरणों में कोटि-कोटि बन्दना ! धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी : आचार्य श्री -- महासती श्री शीलकुमारी भारतीय संस्कृति एक शाश्वत जीवनशक्ति है। सुदीर्घ अतीत काल से आधुनिक युग तक महान आत्माओं के जीवन और उनकी शिक्षाओं से प्रेरणा की लहरें प्रवाहित हुई हैं। उन सन्त भगवन्तों ने अपनी गतिशील आध्यात्मिकता, गम्भीर अनुभवों व सेवा और त्यागमय जीवन के द्वारा हमारी सभ्यता और संस्कृति के सारभूत तत्त्व को जीवित रखा है। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज एक ऐसे ही सन्त रत्न हैं। आपश्री धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी हैं। आपका व्यक्तित्व विभिन्न रंगों से निर्मित चित्र की भांति सुहावना है, सागर की भाँति लुभावना है । आप वक्ता हैं, लेखक हैं, अनुशास्ता हैं। मैंने अनेक बार आपश्री के दर्शन किये हैं, वार्तालाप किया है। श्रमण संघ का गौरव किस प्रकार बढ़े, श्रमणी समुदाय का किस प्रकार विकास हो सके, इस पर मैंने अनेक बार विचार निवेदन किये । मैं चाहती हूँ कि आचार्यश्री के आदेश-निर्देशानुसार श्रमण-सम्मेलन अनेक हुये हैं, पर आज दिन तक श्रमणीसम्मेलन नहीं हुआ। सन्त-सम्मेलनों में श्रमणियाँ पहुँची भी पर उनका वहाँ पर कोई अस्तित्व नहीं रहा है। आज आवश्यकता है श्रमणियों का एक विराट् सम्मेलन हो, जिसमें उनके आचार और विचार के लिए कोई ठोस कदम उठाया जाय । समाज आचार्यप्रवर का अभिनन्दन कर रहा है। मैं लेखिका नहीं है, जो अपने हृदय के विराट भावों को विस्तार से लिख सकं, पर मैं सोचती हूँ कि अभिनन्दन में श्रद्धा की प्रमुखता होती है, शब्दों की नहीं। विशाल शब्दाडम्बर में भाव लूप्त हो जाते हैं इसलिए एक ही शब्द में कहूँ कि हे युग पुरुष ! आचार्य देव ! आप दीर्घकाल तक हमारा नेतृत्व करते हुए हमारे आध्यात्मिक उत्कर्ष को करते रहें । हमारा संयमी जीवन दिन दूना और रात चौगुना चमकता रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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