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________________ damaramanawwacAAORALIAMALALADARiseDASABAL o adMADAJAananamodPawanSAAMKARANEPALKARANA.:.. आचार्यप्रवर आचार्यप्रवरआन श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दाअन्य २०२ इतिहास और संस्कृति गया Ple प्रथम शताब्दी के मध्य तक के हैं। शुग-काल से लेकर गुप्त-काल तक की ऐसी मूल्यवान जैन-सामग्री कदाचित ही अन्यत्र मिले। इसके द्वारा विभिन्न युगों की वेश-भूषा, आमोद-प्रमोद तथा सामाजिक-जीवन के अन्तरंग भावों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। स्तूप के प्रांगण में इस प्रकार के पूजा-शिलापट्ट या आयागपट्ट ऊँचे स्थलों पर स्थापित किये जाते थे । दर्शक उनकी पूजा अर्चना करते थे। 'मथुरा की जैन-शिल्प-कला' में आयागपट्रों को महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक उच्च-कला के जैन-आयागपट्ट लखनऊ संग्रहालय में संग्रहीत हैं। (जे० नं० २४६) । यह सिंहनादिक द्वारा स्थापित हैं। इनके ऊपर नीचे अष्ट-मांगलिक अंकित हैं। दोनों पावों में एक ओर चक्रांकित-ध्वज और दूसरी ओर गजांकित स्तम्भ है, बीच में चार त्रिरत्नों के मध्य में तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन में विराजमान है। दूसरे आयागपट्ट (जे० नं० २५०) में मध्य में एक बड़ा स्वस्तिक अंकित है, उसके गर्भ में एक छोटी तीर्थंकर मूर्ति है। स्वस्तिक के आवेष्टन के रूप में सोलह देवकुमारियों से अलंकृत एक मण्डल है, जिसके चार कोनों पर चार मनोहर मूर्तियाँ है। नीचे की ओर अष्ट मांगलिक-चिन्हों की बेल हैं। इस प्रकार के पूजा-पट्ट को प्राचीन भाषा में स्वस्तिक-पट्ट कहा जाता था। तीसरे 'आयागपट्ट' (जे० २४८) के मध्य में षोडस-धर्म-चक्र की आकृति अंकित है । उसके चारों ओर तीन-मंडल हैं । प्रथम में १६ नन्दिपद, दूसरों में 'अष्ट-दिक्कुमारियाँ', और तीसरे में कुण्डलित पुष्पकर स्रज कमलों की माला है, और चार कोनों पर चार मनोहर मूर्तियां हैं। इस पूजा-पट्ट को प्राचीन काल में चक्र-पट्ट कहा जाता था। आयागपट्ट (जे० नं० २५५) की स्थापना फाल्गुयश नर्तक की पत्नी 'शिवयशा' ने अर्हत-पूजा के लिए की थी। इस पर प्राचीन मथुरा जैन-स्तूप की आकृति अंकित है, जिसके एक ओर तो तोरण, वेदिका और सोपान भी दिया है। मथुरा संग्रहालय में भी एक दूसरा भी आयागपट्ट (क्यूर) है जिसकी स्थापना गणिका 'लावण्य शौभिका' की पुत्री श्रमण-श्राविका वसू ने अर्हतों के मन्दिर में अहंत-पूजा के लिये की है। इस पर भी स्तूप, तोरण, वेदिका और सोपान अंकित हैं। "वेदिकाएँ"-"वेदिका-निर्माण" वास्तु-कला विन्यास का उत्कृष्ट कर्म था। उसमें "उर्वस्तम्भ, आड़ी सूचियों, उष्णीष, आलम्बश, तोरण द्वारों के मुख्य पट्ट', पुष्पाधनी या पुष्पग्रहणी, सोपान, उतारचढ़ाव की छोटी-छोटी पार्श्वगत वेदिकाएँ और ध्वज, स्तम्भ आदि नाना प्रकार की शिल्प-सामग्रियाँ सम्मिलित कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की जाती थी। इनमें स्तूपों के रूपों का भी सम्पादन मनोरम ढंग से किया जाता रहा । वेदिका-स्तम्भों पर निर्मित शालभंजिका मूर्तियाँ वैसी ही मुद्राओं में हैं, जैसी बुद्ध-स्तूपों में । वस्तुतः स्तूप के चतुर्दिक-वेदिका स्तम्भों का जैसा सुन्दर-विधान 'मथुरा-कला' में उदभित है, वह सराहनीय ही नहीं अतुलनीय है। 'शुंग-काल' में तीन विशेष परिवर्तन हुए—प्रथम में मूल स्तूप पर शिलापट्टों का आच्छादन चढ़ाया गया। दूसरे में उसके चारों ओर चार तोरण द्वारों से संयुक्त एक भव्य-वेदिका का निर्माण हुआ। इस JAINED वन 卐 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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