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________________ मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प २०१ वटा स स्थापना की थी। इस प्रकार से जैन-संघ के इतिहास के अन्तर्गत अनेक श्रमण-श्राविकाओं के पुण्य कार्यों का विवरण 'मथुरा' के अभिलेखों में प्राप्त है। उपरोक्त 'सरस्वती' की प्रतिमा की स्थापना संवत ५४ में हई है। मूर्ति के बायें हाथ में पुस्तक है। अब तक की प्राप्त 'सरस्वती-प्रतिमाओं में यह सबसे प्राचीन है। जैन-धर्म में अति प्राचीन काल से ही 'सरस्वती और लक्ष्मी' दोनों देवियों की मान्यता बौद्धिक ही नहीं, आध्यात्मिक रूप में भी रही है। एक अन्य उल्लेखनीय प्रतिमा 'देवी आर्यवती' की है। जो क्षत्रय “शोडास" के राज्य-काल में संवत् ४२ में स्थापित की गयी थी। क्षत्र और चंवर लिए दो पार्श्वचर स्त्रियाँ आर्यवती की सेवा कर रही हैं । इससे उसका राजपद सूचित होता है । सम्भवत: 'आर्यवती देवी' का यह अंकन महावीर की माता 'त्रिशला देवी' का हो। 'अर्हन्त-नन्द्यावर्त' अर्थात् अठारहवें तीर्थकर भगवान श्री 'अरहनाथ' की चौकी पर खुदे एक लेख में कोट्रियगण वज्री शाखा के वाचक आर्य 'वृद्धहस्ती' की प्रेरणा से एक श्राविका ने देव निर्मित स्तूप में अर्हत की प्रतिमा स्थापित की थी। (एपिग्राफिआ इण्डिका भाग २, ले० २०१)। यह लेख संवत् ८६ अर्थात् कुषाण सम्राट वासुदेव के राज्यकाल ई० सन् १६७ का है। कुषाण-कालीन-मूर्तियों पर अनेक अभिलेख हैं। इन लेखों की लिपि 'ब्राह्मी' है, और भाषा संस्कृतप्राकृत का मिश्रण है। इनके द्वारा तत्कालीन जैन-धर्म सम्बन्धी अत्यधिक जानकारी प्राप्त होती है। कंकाली-टीले से प्राप्त मूर्तियाँ जो 'मथुरा और लखनऊ' आदि संग्रहालयों में स्थित हैं, कुषाण संवत् ५ से ९५ तक की हैं। बाद में इन मूर्तियों का स्थापना क्रम ग्यारहवीं शताब्दी तक बराबर मिलता है। कला की दृष्टि से गुप्त-काल की पद्मासन-मूर्तियाँ श्रेष्ठ हैं। __अनेक वेदिका-स्तम्भों पर सूचीदलों की सुन्दर सजावट, आभूषण संभारों से उन्नतांगी रमणियों के सुखमय जीवन का अमर वाचन है। अशोक, वकुल, आम्र तथा चम्पक के उद्यानों में पुष्प मंजिका-क्रीड़ाओं में आसक्त, कन्दुक, खड़गादि नृत्यों में प्रवीणता की बोधक, स्नान और प्रसाधन में संलग्न पौरांगनाओं को देखकर जिस सजीवता का आभास होता है, वह अवर्णीय है। भक्ति-भाव पूरित पूजन के लिए पुष्पमालाओं का उपहार लाने वाले उपासक-वृन्दों की शोमा विलक्षण है। सुपर्ण और किन्नर सदृश देव भी पूजा के इन श्रद्धामय कृत्यों में बराबर भाग लेते हुए अंकित हैं। ये सभी दृश्य मात्र भाव-गम्य हैं, इनका वर्णन सम्भव है ही नहीं। "आयागपट्ट"-मथुरा "जैन आयागपट्ट" विशेष रूप से गौरव-शाली हैं। इसमें प्रायः बीच में तीर्थक र-मूर्ति तथा चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नंदावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश, मीनयुगल, और 'अष्ट-मंगल-द्रव्यों, का आयागपट्टों पर सुन्दर आलेखन है। एक में तो आठ दिक्कुमारियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़े हए आकर्षक-मुद्राओं में नृत्य में संलग्न हैं। मण्डल का चक्रवाल अभिनय का उल्लेख "रायपसेनिय-सत्त" में आया है। एक दूसरे आयागपद पर तोरण-द्वार तथा वेदिका की अत्यन्त कलात्मक सर्जना है । ये सभी वस्तुएँ कला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इनमें अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई० सन् पूर्व १०० से लेकर ई० Pro DAIADHANAGALADISLAanandane JawasarammariawaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaDASARAN सामाज . श्रीआन भलाया 123RE 16A ग्रन्थ श्राआनन्काग्रन्थ NAVNINMAHARYANAVARAN manoraminwwimmmmmmmmonwanemamariwimwomemaina Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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