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________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६५ निकला था । इसके अतिरिक्त, एशियाटिक रिसचेंज के प्रथम भागों में दूसरे कितने ही ताम्रपत्रों और शिलालेखों पर इनकी टिप्पणियां प्रकाशित हुई थीं । भगवद्गीता का भी सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद इसी अंग्रेज ने किया था । सन् १७६४ ई० में सर जेम्स की मृत्यु हुई। उनके पश्चात् हैनरी कोलब्रुक की उनके स्थान पर नियुक्ति हुई । कोलब्रुक अनेक विषयों में प्रवीण थे । उन्होंने संस्कृत साहित्य का खूब परिशीलन किया था । मृत्यु के समय सर जेम्स सुप्रसिद्ध पण्डित जगन्नाथ द्वारा सम्पादित "हिन्दू और मुसलमान कायदों का सार" नामक संस्कृत ग्रन्थ का अनुवाद कर रहे थे। इस अधूरे अनुवाद को पूर्ण करने का कार्य कोलव क साहब को सौंपा गया। कितने ही पण्डितों की सहायता से सन् १७६७ ई० में यह कार्य पूरा किया। इसके पश्चात् उन्होंने 'हिन्दुओं के धार्मिक रीति-रिवाज,' 'भारतीय माप का परिमाण', 'भारतीय वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति', 'भारतवासियों की जातियाँ' आदि विषयों पर गम्भीर निवन्ध लिखे । तदनन्तर १८०१ ई० में "संस्कृत और प्राकृत भाषा", "संस्कृत और प्राकृत छन्दः शास्त्र" आदि लेख लिखे । फिर उसी वर्ष में दिल्ली के लोहस्तम्भ पर उत्कीर्ण विशालदेव की संस्कृत प्रशस्ति का भाषान्तर भी इसी अंग्रेज विद्वान ने प्रकाशित किया। सन् १८०७ में वे एशियाटिक सोसाइटी के सभापति बने और उसी वर्ष उन्होंने हिन्द ज्योतिष, अर्थात् खगोल विद्या पर एक ग्रंथ लिखा तथा जैन धर्म पर एक विस्तृत निबन्ध प्रकट किया। कोलन क ने वेद, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त, बौद्ध आदि भारतीय विशिष्ट दर्शनों पर तो बड़े-बड़े निबन्ध लिखे ही थे, साथ ही कृषि, वाणिज्य, समाजव्यवस्था, साधारण साहित्य, कानून, धर्म, गणित, ज्योतिष, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर भी खूब विस्तृत निबन्ध लिखे थे । उनके ये लेख, निबन्ध, प्रबन्धादि आज भी उसी सम्मान के साथ पढ़े जाते हैं । बेवर, बूहलर और मैक्समूलर आदि विद्वानों द्वारा निश्चित किए हुए कितने ही सिद्धान्त भ्रमपूर्ण सिद्ध हो गए हैं । परन्तु कोलब्रुक द्वारा प्रकट किए हुए विचार बहुत कम गलत पाए गए हैं। यह एक सौभाग्य ही की बात थी कि आरम्भ ही में हमारे साहित्य को एक ऐसा उपासक मिल गया जिसने हमारे तत्त्व ज्ञान और प्राचीन साहित्य को निष्पक्षपात पूर्वक मूल स्वरूप में यूरोप निवासियों के सम्मुख उपस्थित किया और जिसने संसार का ध्यान हमारी प्राचीन संस्कृति की ओर सहानुभूति पूर्वक आकर्षित किया । यदि उन्होंने ऐसा अपूर्व परिश्रम न किया होता तो आज यूरोप में संस्कृत का इतना प्रचार न हो पाता । कोलब्रुक जब भारत छोड़कर इंग्लैण्ड गए तो वहाँ भी उन्होंने रायल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की, अनेक विद्वानों को संस्कृत का अध्ययन करने के लिए उत्साहित किया और आँखों से अन्धे होते हुए भी अनेक उपायों द्वारा संस्कृतसाहित्य की सतत सेवा करते रहे । जहाँ एक ओर कोलब्रुक साहब संस्कृत साहित्य के अध्ययन में मग्न हो रहे थे वहाँ दूसरी ओर कितने ही उनके जाति बन्धु हिन्दुस्तान के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के पुरातत्त्व की गवेषणा में व्यस्त थे । सन् १८०० ई० में माक्विस् वेल्जली साहब ने मंसूर प्रान्त के कृषि आदि विभागों की तपास करने के लिए डॉक्टर बुकनन की नियुक्ति की । उन्होंने अपने कृषि विषयक कार्य के साथ-साथ उस प्रान्त की जूनीपुरानी वस्तुओं का भी बहुत-सा ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनके कार्य से सन्तुष्ट होकर कम्पनी ने १८०७ Jain Education International श्री आनन्द अन्थ श For Private & Personal Use Only आयाय प्रवदतु आम श्री 2019 फ्र ww www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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