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________________ क्या जैन सम्प्रदायों का एकीकरण सम्भव है ? १५३ ( iद ORG परन्तु यह प्रकट है कि आत्म-कल्याण और आन्तरिक तप के इन अधिष्ठाताओं के लिये श्री संघ का अनुशासन स्वीकार करना और उस पर सतत आचरण करना बहुत कठिन होता है। फिर भी, श्री शासनदेव द्वारा ही, जगत्-कल्याण के लिये, श्रमण-संघों की अनुशासनबद्ध स्थापना जैन धर्म का एक निर्मम नियम है क्योंकि उसी सूरत में, आत्मकल्याण, जगत् कल्याण का पर्याय बन जाता है। बीस बरसों से अधिक समय हुआ होगा जब उपसम्प्रदायवाद को एकसूत्री सम्प्रदाय का स्वरूप देने का स्थानकवासी समाज का एक महत्वपूर्ण प्रयोग शुरू हुआ था । श्रमण संघ का सादड़ी अधिवेशन में एकीकरण हुआ और यह आशा सुदृढ़ हुई कि इस एकता की शुरूआत, अन्त में सम्पूर्ण सम्प्रदाय के विशुद्ध एकीकरण को जन्म देगी। मैं यहाँ इतिहास की व्याख्या नहीं करूंगा। लेकिन स्थानकवासी समाज को पता है कि श्रमण-एकता का काल खण्ड बहुत छोटा रहा । एक के बाद एक, विभिन्न उपसम्प्रदाय, अलग-अलग कारणों से फिर से उपसम्प्रदायों की स्थापना करने लग गये और श्रमण-एकता का स्वप्न टूट गया। जिस महा-मनीषी के गौरव के लिये यह अभिनन्दन ग्रन्थ रचा जा रहा है, उन्हीं आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज साहब ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इस एकता के मूल सूत्र अब भी जोड़ रखे हैं । परन्तु क्या हम इसे एकीकरण का सफल प्रयोग कह सकते हैं ? नई पीढ़ी और उप-सम्प्रदायों का एकीकरण मूल रूप से, मैं मानता हूँ कि जैन धर्म के प्रमुख सम्प्रदायों का एकीकरण तो सम्भव नहीं है, सद्भाव, एकत्रित और संयुक्त कामकाज, सहयोग और संयुक्त विकास अवश्य सम्भव है, हितकर भी है और आवश्यक भी। लेकिन यह भी मेरी मान्यता है कि इन चार प्रमुख सम्प्रदायों में, अंतर्गत उपसम्प्रदायों का आरम्भ में एकीकरण और अन्त में विलीनीकरण सम्भव भी है और आवश्यक भी। और मेरा विचार है कि इस बड़े काम के लिये, श्रावकों की भूमिका भविष्य में अधिक निर्णायक और प्रभावशाली रहेगी। मुझे खेद के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि कम-से-कम निकट भविष्य में तो, श्रमणों में तो स्वयं स्फूर्ति से उत्पन्न एकीकरण सम्भव नहीं दिखलाई देता। अगर मौके बेमौके ऐसे प्रयत्न होंगे भी तो वे अल्पजीवी ही रहेंगे और उन्हें स्थायी स्वरूप दे पाना बहुत कष्टसाध्य बात होगी। लेकिन इस अहम् सवाल पर हम श्रावकों को क्यों भूल जाते हैं ? जरा जैन धर्मावलम्बियों की नई पीढ़ी की ओर देखिये । वे अगर आज जैनी हैं तो इसीलिये कि उनके मां-बाप जैनी हैं और एक विशिष्ट सम्प्रदाय के हैं ? परन्तु धर्माचरण और धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा क्या विरासत में मिलती है ? क्या इस बात की कोई गारण्टी है कि विशिष्ट सम्प्रदाय अथवा उपसम्प्रदाय की सन्तान उसी सम्प्रदाय की बिला हीला-हज्जत श्रावक-श्राविका बनी रहेगी? यह तो नई पीढ़ी के साथ अन्याय भी होगा और उसकी शक्ति को अनदेखा करने जैसा होगा। अगर हमारे इस युग की नौजवान पीढ़ी को अपने धर्म से, अपने सम्प्रदाय से अभिन्न लगाव होगा तो उसमें तर्क, बुद्धि और भावना का त्रिवेणी संगम होगा। केवल गतानुगति और परिवार की रुचि निर्णायक नहीं रह सकती। और इस नये युग की नई जैन स्थानकवासी श्रावक समाज की सामूहिक शक्ति स्वाभाविक ही, उपसम्प्रदायवाद को समाप्त कर सकेगी। हमारे लिये मुख्य कार्य है, उस आधार को तैयार करना SALAMAAJANSAMVIRAINindiAIIMomsaina MARWAJANARORICASutr a Mirmirm viiiiviaNAM Domimmamromintwwmanwadiwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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