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________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द We अभिनन्दन आआनन्दका अन्य ग्र १५२ इतिहास और संस्कृति अन्य सम्प्रदायों के बारे में धैर्य से बात सुनने-समझने को तैयार नहीं, तब भला दूसरे धर्मों के बारे में निन्दा का तो हमें अधिकार ही क्या है ? बहुत मोटी बुद्धि से भी यह समझ में आ जाता है कि धर्म संस्थापक, दैवी शक्ति से विभूषित, अद्भुत प्रतिभा के धनी और जन-जन के मन पर अनिर्वचनीय प्रभाव पैदा करने वाली शक्ति के संयोजक होते हैं । उनकी वाणी, कर्म और विचार, समस्त मानव जाति के अन्तिम सुख, शान्ति और कल्याण के लिये समर्पित होते हैं । इसलिये उनके ईमानदार से ईमानदार शिष्य के लिये भी, उस युग-निर्माणक देव- पुरुष के कथन, उपदेश अथवा आचरण का सौ फीसदी स्वरूप समझ पाना शायद सम्भव हो भी जाय परन्तु उस कथन, उपदेश अथवा आचरण की जन-जन के लिये वैसी ही विशुद्ध व्याख्या कभी सम्भव हो ही नहीं पायेगी । आखिर व्याख्याता - शिष्य, स्वयं तीर्थंकर भगवान या अवतार तो नहीं होता और इस प्रकार, प्रत्येक विशाल धर्म की सहज, ईमानदार और निश्छल व्याख्या के प्रयत्नों के बाद भी, बहुत जल्द धर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ जन्म लेने लगती हैं । सम्प्रदायों का यही उद्गम है । अगर यह सही है तब प्रश्न उठेगा - किन स्थितियों में, सम्प्रदायों का एकीकरण सम्भव है ? पहले हम एकीकरण का अर्थ समझ लें । जहाँ तक मैं समझता हूँ, एकीकरण का अर्थ, विलीनीकरण तो हो ही नहीं सकता । जिन विशिष्ट परिस्थितियों में प्रत्येक सम्प्रदाय ने जन्म लिया है, वे भला भविष्य में भी समाप्त कैसे हो सकती हैं ? अगर कोई असाधारण प्रतिभा और देवी प्रेरणा का प्रतीक यह प्रयत्न भी करे तो डर यही है कि वह एक नये सम्प्रदाय को जरूर जन्म दे देगा, मौजूद सम्प्रदायों का विलीनीकरण सम्भव नहीं होगा । तब एकीकरण ? आप इसे हठ कहें या अपना-अपना आग्रह, कोई भी सम्प्रदाय न तो अपनी-अपनी व्याख्याओं और उन पर आधारित धार्मिक रस्मों में परिवर्तन करने को तैयार होगा और ना ही इस बात के लिये राजी होगा कि सम्प्रदाय अपने परिवर्तन प्रचार को त्याग दे । ऐसी हालत में, शायद हम एकीकरण की बात, एक विरोधाभास के रूप में ही पेश कर रहे हैं ? उप-सम्प्रदायों का संसार शायद इसीलिये, देश - काल के समाज सुधारक और प्रखर प्रतिभाशाली विद्वानों ने सम्प्रदायों का एकीकरण के बजाय, उप-सम्प्रदायवाद की समाप्ति पर बल दिया । मैं स्थानकवासी हूँ । जानता हूँ, स्वयं इस जैन सम्प्रदाय में कितने छोटे-बड़े सम्प्रदाय हैं। सभी उप-सम्प्रदाय, केवल अपने आप को ही विशुद्ध और सही स्थानकवासी मानते हैं । लेकिन यह तो जरूर सम्भव है कि कम-से-कम विशिष्ट सम्प्रदाय के उप-सम्प्रदायों का एकीकरण कर डाला जाय और आम जनता में, केवल एक ही सम्प्रदाय की मान्यता सर्वव्यापी हो ? कमीबेशी, यही हालत आपको जैन धर्म के अन्य सम्प्रदायों में भी मिल जायेगी । स्थानकवासी समाज की धुरी है - हमारे श्रमण । और हमारे आदरणीय श्रमण ही, उप-सम्प्रदायवाद की समाप्ति करने के लिये आसानी से एकमत नहीं होते । इन अनगिनत उपसम्प्रदायों का आधार केवल श्रमणवर्ग की भिन्नता है, उनका विभिन्न आचार-विचार है और है उनकी अपनी-अपनी व्यक्तिगत आचरण-शैली । मेरे लिये वैराग्य और श्रमण जीवन का मनोवैज्ञानिक रहस्य समझना तो असम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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