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________________ wamanarrawnaramanumarmaramananeruwataranamamarinaranamasumaasaaranamardanMJAADAABAJabardanasalut NIRUD ONOME e NYM . . . " आचार्यप्रवल अभिमभागावर आमा श्रीआनन्द अन्ध-श्रीआनन्द अन्य Miniwomenimwimmitmarwarmirmiremainer womwww १२२ इतिहास और संस्कृति लगा । यद्यपि ऐसी स्थिति आने से पहले भी स्थविर-श्रमण दीक्षार्थियों को दीक्षित करते थे परन्तु दीक्षित श्रमण मुख्य पट्टधर या आचार्य के ही शिष्य माने जाते थे। परिवर्तित दशा में ऐसा नहीं रहा । दीक्षा देने वाले दीक्षा गुरु और दीक्षित उनके शिष्य-ऐसा सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। इससे संघीय ऐक्य की परम्परा विच्छिन्न हो गई और कुल के रूप में एक स्वायत इकाई प्रतिष्ठित हो गई। भगवती सूत्र की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरि एक स्थान पर कुल का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं। "एत्थ कुलं विण्णेयं, एगायरियस्स संतई जाउ । तिण्ह कुलाणमिहं पुण, सावेक्खाणं गणो होई।' (एतत कुलं विजेयम्, एकाचार्यस्य सन्ततिर्यातु । बयाणां कुलानामिह पुनः सापेक्षाणां गणं भवति ।) एक आचार्य की सन्तति या शिष्य-परम्परा को कुल समझना चाहिए। तीन परस्पर सापेक्ष कुलों का एक गण होता है। पंचवस्तुक टीका २ में तीन कुलों के स्थान पर परस्पर-सापेक्ष अनेक कुलों के श्रमणों के समुदाय को गण कहा है। प्रतीत होता है कि उत्तरोत्तर कलों की संख्या बढ़ती गई। छोटे-छोटे समुदायों के रूप में उनका बहुत विस्तार होता गया। यद्यपि कल्पस्थविरावली में जिनका उल्लेख हुआ है, वे बहुत थोड़े से हैं पर जहाँ कुल के श्रमणों की संख्या नौ तक मान ली गई, उससे उक्त तथ्य अनुमेय है। पृथक-पृथक् समुदायों या समूहों के रूप में विभक्त रहने पर भी ये भिन्न-भिन्न गणों से सम्बद्ध रहते थे। एक गण में कम से कम तीन कुलों का होना आवश्यक था। अन्यथा गण की परिभाषा में वह नहीं आता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक गण में कम से कम तीन कुल अर्थात् तदन्तर्वर्ती कम-से कम सत्ताईस साधु तथा एक उनका अधिनेता, गणपति या आचार्य-कुल अट्ठाईस सदस्यों का होना आवश्यक माना गया। ऐसा होने पर ही गण को प्राप्त अधिकार उसे सुलभ हो सकते थे । यह न्यूनतम संख्या-क्रम है। इससे अधिक चाहे जितनी बड़ी संख्या में श्रमण वन्द उसमें समाविष्ट हो सकते थे। गणों एवं कुलों का पारस्परिक सम्बन्ध, तदाश्रित व्यवस्था आदि का एक समय विशेष तक प्रवर्तन रहा। मुनि ५० श्री कल्याण विजय जी युगप्रधान-शासन-पद्धति के चलने तक गण व कुलमूलक परम्परा के चलते रहने की बात कहते हैं। पर युगप्रधान-शासन-पद्धति यथावत रूप में कब तक चली, उसका संचालनक्रम किस प्रकार का रहा- इत्यादि बातें स्पष्ट रूप में अब तक प्रकाश में नहीं आ सकी हैं । अतः हम काल की इयत्ता में इसे नहीं बांध सकते । इतना ही कह सकते हैं, सघ संचालन या व्यवस्था-निर्वाह के १. भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक ८ वृत्ति २. परस्परसापेक्षाणामनेककुलानां साधूनां समुदाये । -पंचवस्तुक टीका द्वार १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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