SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 636
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १२१ शाखाएं गणों के साथ-साथ शाखाओं का भी वर्णन मिलता है, जिनकी चर्चा यहाँ अपेक्षित है। आचार्य भद्रबाहु के शिष्यों में एक का नाम गोदास था। उनसे गोदास नामक गण निकला, ऐसा उल्लेख किया जा चुका है। कल्प-स्थविरावली में ऐसा भी वर्णन है कि गोदास गण से चार शाखाएँ निकलीं, जिनके निम्नांकित नाम थे १. ताम्रलिप्तिका २. कोटिवर्षीया ३. पौण्ड्रवर्धनीया ४. दासीकर्पटिका शाखाओं के इन नामों से प्रकट है कि इनके नामकरण के आधार स्थान-विशेष हैं । प्रतीत होता है कि जिन श्रमणों का जिस स्थान के इर्द-गिर्द अधिक विहार तथा प्रवास होता रहा, उन श्रमणों या उनके दल का उस स्थान से सम्बद्ध नाम पड़ गया । यहाँ उल्लिखित शाखाओं का सम्बन्ध क्रमशः ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष, पौण्ड्रवर्धन तथा दासीकर्पट नामक स्थानों से प्रतीत होता है। ऐसा भी लगता है कि क्षेत्र-विशेष में विशेष प्रवासन पर्यटन के कारण सम्बद्ध गण के अन्य श्रमणों से अधिक सम्पर्क नहीं रह सका । फलतः भिन्न-भिन्न शाखाएँ मूल गण से अपने को सर्वथा विच्छिन्न न मानते हुए भी व्यवस्था, अनुशासन, पठन-पाठन आदि की दृष्टि से पृथक्-सी हो गई हों। जिस प्रकार गोदास गण से उपर्युक्त शाखाएँ निकलीं, उसी प्रकार उत्तरवर्ती समय में प्रतिष्ठित होने वाले अन्यान्य गणों से भी शाखाओं के निकलते रहने का क्रम चालू रहा। MINE श्रमणों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। गणों के रूप में जो इकाइयाँ निष्पन्न हई थीं उनका रूप भी विशाल होता गया। तब स्यात् गण व्यवस्थापकों को वृहत् साधु-समुदाय की व्यवस्था करने में कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुआ हो। क्योंकि अनुशासन में बने रहना बहुत बड़ी सहिष्णुता और धैर्य की अपेक्षा रखता है। हर कोई अपने उद्दीप्त अहं का हनन नहीं कर पाता। अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं, जिनसे व्यवस्था-क्रम में कुछ और परिवर्तन आया। जो समुदाय गण के नाम से अभिहित होते थे, वे कुलात्मक इकाइयों में विभक्त हुए। इसका मुख्य कारण एक और भी है। जहाँ प्रारम्भ में बिहार और उसके आस-पास के क्षेत्र में जैन धर्म प्रसृत था, उसके स्थान पर उसका प्रसार क्रम तब तक काफी बढ़ चुका था। श्रमण दूर-दूर के क्षेत्रों में बिहार, प्रवास करने लगे थे। जैन श्रमण बाह्य साधनों का मर्यादित उपयोग करते थे, अब भी वैसा है। अतएव यह सम्भव नहीं था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में पर्यटन करने वाले मुनिगण का पारस्परिक सम्पर्क बना रहे । दूरवर्ती स्थान से आकर मिल लेना भी सम्भव नहीं था, क्योंकि जैन श्रमण पद-यात्रा करते हैं। ऐसी स्थिति में जो-जो श्रमण-समुदाय विभिन्न स्थानों पर बिहार करते थे, वे दीक्षार्थी मुमुक्षु जनों को स्वयं अपने शिष्य रूप में दीक्षित करने लगे। उनका दीक्षित श्रमण-समुदाय उनका कुल कहलाने भागप्रवर अभिसापायप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दान्थ MinomonaMMwaminior Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy