SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन १०६ जैन कवियों ने नवीन काव्य-रूपों के निर्माण के साथ-साथ प्रचलित काव्य रूपों को नई भाव-भूमि और मौलिक अर्थवत्ता भी दी। इन सब में उनकी व्यापक, उदार दृष्टि ही काम करती रही । उदाहरण के लिए वेलि, बारहमासा, विवाहलो रासो, चौपाई, संधि आदि काव्य रूपों के स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है । वेलि संज्ञक काव्य डिंगल शैली में सामान्यतः वेलियो छन्द में ही लिखा गया है पर जैन कवियों ने 'बेलि' काव्य को छन्द विशेष की सीमा से बाहर निकाल कर वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से व्यापकता प्रदान की । 'बारहमासा' काव्य ऋतु काव्य रहा है जिसमें नायिका एक-एक माह के क्रम से अपना विरह - प्रकृति के विभिन्न उपादानों के माध्यम से व्यक्त करती है । जैन कवियों ने 'बारहमासा' की इस विरह-निवेदन प्रणाली को आध्यात्मिक रूप देकर इसे श्रृंगार क्षेत्र से बाहर निकालकर भक्ति और वैराग्य के क्षेत्र तक आगे बढ़ाया। 'विवाहलों' संज्ञक काव्य में सामान्यतः नायक-नायिका के विवाह का वर्णन रहता है, जिसे ब्याहलो भी कहा जाता है। जैन कवियों ने इसमें नायक का किसी स्त्री से परि य न दिखा कर संयम और दीक्षा कुमारी जंसी अमूर्त भावनाओं को परिणय के बंधन में बाँधा गया । रासो, संधि और चौपाई जैसे काव्य रूपों को भी इसी प्रकार नया भाव बोध दिया । 'रासो' यहाँ केवल युद्ध परक वीर काव्य का व्यंजक न रह कर प्रेम परक गेय काव्य का प्रतीक बन गया । 'संधि' शब्द अपभ्रंश महाकाव्य के सर्ग का वाचक न रह कर विशिष्ट काव्य विधा का ही प्रतीक बन गया । 'वौपाई संज्ञक काव्य चौपाई छन्द में ही न बँधा रहा, वह जीवन की व्यापक चित्रण क्षमता का प्रतीक बनकर छन्द की रूढ कारा से मुक्त हो गया । उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन कवियों ने एक ओर काव्य रूपों की परम्परा के धरातल को व्यापकता दी तो दूसरी ओर उसको बहिरंग से अन्तरंग की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर भी खींचा। यहाँ यह भी स्मरणीय है जैन कवियों ने केवल पद्य के क्षेत्र में ही नवीन काव्य रूप नहीं खड़े किये वरन् गद्य के क्षेत्र में भी कई नवीन काव्य रूपों गुर्वावली, पट्टावली, उत्पत्तिग्रंथ, दफतर बही, ऐतिहासिक टिप्पण ग्रथ प्रशस्ति, वचनिका - दवावैत-सिलेका, बालावबोध आदि की सृष्टि की। यह सृष्टि इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा हिन्दी गद्य का प्राचीन ऐतिहासिक विकास स्पष्ट होता है । हिन्दी के प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य में इन काव्य रूपों की देन महत्वपूर्ण है । जैनधर्म का लोक-संग्राहक रूप : धर्म का आविर्भाव जब कभी हुआ विषमता में समता, अव्यवस्था में व्यवस्था और अपूर्णता में सम्पूर्णता स्थापित करने के लिए ही हुआ । अतः यह स्पष्ट है कि इसके मूल में वैयक्तिक अभिक्रम अवश्य रहा पर उसका लक्ष्य समष्टिमूलक हित ही रहा है, उसका चिन्तन लोकहित की हुआ है। भूमिका पर ही अग्रसर पर सामान्यतः जब कभी जैनधर्म के लोक संग्राहक रूप की चर्चा चलती है तब लोग चुप्पी साध लेते हैं । इसका कारण मेरी समझ में शायद यह रहा है कि जैनदर्शन में वैयक्तिक मोक्ष की बात कही गई है । सामूहिक निर्वाण की बात नहीं। पर जब हम जैनदर्शन का सम्पूर्ण सन्दर्भों में अध्ययन करते हैं तो उसके लोक-संग्राहक रूप का मूल उपादान प्राप्त हो जाता है | Jain Education International आचार्य अभि आचार्य प्र श्री आनन्द ग्रन्थ आनंद For Private & Personal Use Only 九 350 फ्र mypo www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy