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________________ अाया 1THशाचार्य . Na m WANASAMPADMAANAANNAIANAANABAJAJANKARARIAABAJAJAJAJAMIABANADARADAana.00 MORE 17G 2 Camwaminirommonww wwimaraviwarwaiwwmmmmmawwarawermentariniriwwwimmamme naww.iane १०० प्राकृत भाषा और साहित्य तो कवि ने शब्दों की योजना द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से की है। शब्द ही हृदय की भाव-विभोर अवस्था को उपस्थित करने में सक्षम्य हैं । यथा : पिककारिणी विच्छोइअओ गुरुसोआणल दीविअओ। वाह जलाउललोअणलो करिवरु भमई समाउलओ॥-४।२९ अर्थात् अपनी प्यारी हथिनी के विछोह की भयंकर आग में जलता हुआ और रोता हुआ यह हाथी व्याकुल होकर घूम रहा है। अपभ्रंश छन्द परम्परा की तुकान्त प्रवृत्ति अथवा ताल छन्दों का सर्वप्रथम दर्शन हमें उक्त प्राकृतअपभ्रंश पद्यों में मिलता है। इनमें अनेक लोकगीतात्मक छन्दों का प्रयोग हुआ है जो परवर्ती कई छन्दों के आदिम रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं । चर्चरी गीतियों के विशिष्ट अध्ययन हेतु भी ये पद्य बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे । २४ मात्रावाला एक ऐसा छन्द भी विद्यमान है जिसे कुछ विद्वानों ने रोला छन्द का आदिम रूप माना है। विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अंक में प्रस्तुत प्राकृत-पद्यों का छन्दों की दृष्टि से विशद विश्लेषण यहाँ प्रसंगानुकूल नहीं है । प्रकाशित संस्करणों की प्रमादजन्य अशुद्धियों के कारण वह सहज सम्भव भी नहीं, किन्तु संक्षेप में उनका वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है :१. गाथा ४११, १।४, ४।५, २. गाहू ४।३, ४।६, ४।१६, ४।३५, ४१४३, ४१४८, ४।६४, ४१७६ ३. गाथिनी ४।१४, ४।२३, ४. सिंहनी ४१५३, ५. स्कन्धक ४१५०, ४७१, ६. दोहा ४।८, ४।३६, ४।४१, ७. रसिका छन्द- ४।२४, ४।३२, ४।६६, ८. छप्पय ४१५४, ६. रड्डा--- ४।२८, ४१५४, १०. मधुभार-- ४१५३ ११. दुवई ४।२, ४।२६, महाकवि कालिदास द्वारा प्रयुक्त उक्त विविध छन्द भाषा में संगीतात्मकता एवं चित्रात्मकता उत्पन्न करने में समर्थ सिद्ध हुए हैं। कवि ने मन की रसप्रेरणा की अभिव्यक्ति के हेतु शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों के साथ इन छन्दों की नियोजना की है। वास्तव में हमारे शब्द का अर्थ उसकी ध्वनि एवं चित्रसम्पदा पर इतना निर्भर रहता है कि इस समस्त संगीत माधुर्य एवं चित्रसम्पदा को पृथक कर देने पर शब्द का निरपेक्ष अर्थ ढूंढ़ पाना ही कठिन होगा। कालिदास ने उक्त प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों में अपनी प्रकृति के अनुसार वैदर्भी रीति का नियोजन किया है । मधुर कान्तपदावली के साथ असमस्यन्त पद सर्वत्र प्रयुक्त हैं । प्रसाद गुण भी सभी पद्यों में समाविष्ट है । कृत्रिमता अथवा बलपूर्वक शब्द चयन करने की चेष्टा नहीं की गई है । अतएव उक्त पद्य भाषावैज्ञानिक दृष्टि से जितने महत्वपूर्ण हैं उतने ही काव्यमूल्यों की दृष्टि से भी। IN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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