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________________ आचार्यप्रaas साधार्यप्रवर आभनन्दन श्रीआनन्दसन्यश्रीआनन्दन ८४ प्राकृत भाषा और साहित्य VvvimavIVINYiwimmy.viraimermanor TV - -3 - - V यह सूचित करता है कि क्रिया कर्ता अथवा कर्म आदि से मुक्त है। कभी-कभी विशेषण और विशेष्य के बीच अन्य पदबन्ध आ जाता है, पर अर्थ-अभिव्यक्ति में बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि विशेषण और विशेष्य सम-विभक्तिक होते हैं जयसिरि माणणहो कहें केत्तडउ कालु अचलु जउ जीविउ रज्जु दसा दसाणणहों -- - - --- 2 - -- उपयुक्त उदाहरण में अंश 1, अंश 4 का विशेषण है, दोनों के बीच कर्म पदबन्ध है। परन्तु माणणहों की 'हो' षष्ठी एक० व० की विभक्ति और दसाणणहों में भी उसी विभक्ति 'हों के कारण विशेषण-विशेष्य भाव स्पष्ट हो जाता है। अन्यत्र भी विशेषण-विशेष्य की समवैभक्तिकता के प्रमाण मिलते हैं __ दुग्गइ-गामिउ रज्जु ण भुमि --(२२) ----Mo-- - - -v'रज्जु' (राज्य) कर्म है । दुग्गइ-गामिउ (दुर्गतिगामी) कर्म का विशेषण (Modifier) है । दोनों में समान विभक्ति चिन्ह 'उ' है । आचार्य हेमचन्द्र के निम्नलिखित सूत्र से कर्म. एक व० में 'उ' की इस स्थिति की सूचना मिलती है 'स्यमोरस्यात' परन्तु यह सूत्र अन्त्य 'अ' को ही 'उ' का आदेश करता है । प्राकृत में भी वाक्य-विन्यास में कर्ता+क्रिया वि०+क्रिया साँचा प्रयुक्त होता रहा है'से ण किणे न किणाकिणंतं न समणुजाणइ' --(२३) [आचारांग सूत्र, पृ० २६२, सं०-मुनि समदर्शी] 'आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती' --(२४) [वही, पृ० ४२८] S अतः कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के ये सांचे प्राकृत-अपभ्रंश में चलते रहे हैं। वस्तुतः जैसा विद्वानों ने कहा है 'अपभ्रंश में अयोगात्मकता हो गई थी', वैसा है नहीं । अपभ्रंश के वाक्य साँचे, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से सिद्ध होता है, उसे योगात्मक कोटि की जनभाषा ही सिद्ध करते हैं। तब भी अपभ्रंश के अपने साँचे हैं, अपनी व्यवस्था है। इनमें से कतिपय का दिग्दर्शन उपर्यक्त विवेचन में प्रस्तुत किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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