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________________ ( ४१ ) __ मेरे गुरुदेव प्रगति की जानकारी करते रहते । इस प्रकार से छह माह बीत गये । एक दिन मैं अध्ययन करके कुछ जल्दी आ गया था। समय दिन के ग्यारह बजे का होगा। गुरुदेव पानी लेकर आये, लेकिन वृद्धावस्था और शरीर की स्थूलता के कारण सांस भर गया। गुरुदेव के स्वास्थ्य को देखकर मैंने निवेदन किया कि अध्ययन के अतिरिक्त कुछ समय सेवा का दीजिये। सेवा के साथ अध्ययन होने से मुझे विशेष लाभ होगा । लेकिन गुरुदेव की एक ही भावना थी कि शिष्य का बौद्धिक विकास अधिक हो, अध्ययन के लिये अधिक समय मिले । अतएव अपने स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान न देते हुये फरमाया-आनन्द ! समय मात्र का प्रमाद न करो-यह भगवान का वचन ध्यान में रखो। मेरे शरीर की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है, यह तो अस्थायी है, ज्ञान स्थायी है अतः उसकी प्राप्त को प्रमुख मानो। यह था गुरु का आदर्श और उसके आलोक में मुझे अध्ययन के अच्छे से अच्छे अवसर प्राप्त होते रहे। व्याकरण का अध्ययन हो रहा था। लेकिन बीच-बीच में व्यवधान आ जाने से गुरुदेवश्री ने विचार किया कि संस्कृत के केन्द्र पूना में शिष्य के लिये व्यवस्था की जाये तो योग्य रहेगा । यह विचार कर पूना पदार्पण किया और विद्वानों की व्यवस्था करने का विचार किया। लेकिन उन दिनों संस्कृत के जैन विद्वान तो थे नहीं और दूसरे विद्वान जैनों को पारिश्रमिक देने पर भी पढ़ाने के लिये तैयार नहीं होते थे। लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह के अनुसार सामयिक पत्रों में विज्ञापन देने से अनेक विद्वानों के पत्र आये। उनमें से चयन करके पं० श्री राजधारी त्रिपाठी शास्त्री जी अध्यापन के लिये नियुक्त हये । गुरुदेव ने भी शास्त्री जी की विद्वत्ता और प्रतिभा की परीक्षा करके शिक्षण के लिये निष्णात पाया । त्रिपाठी जी विद्वान थे, साथ ही उत्साही थे। अट्ठाइस माह में सिद्धान्त कौमुदी पूर्ण कराने का कहकर भी उसे बीस माह में ही समाप्त करा दिया। आप जो कुछ पढ़ाते, उसको याद कराते और रात्रि में पुनः आवृत्ति करा के दूसरे दिन आगे पाठ देते थे । स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी अपने नियमित अध्यापन में उन्होंने व्यवधान नहीं आने दिया। दिन रात स्थानक में रहना और अध्ययन कराना ही उनके कार्य थे। श्री त्रिपाठी जी ने सिद्धान्तकौमुदी के साथ जैनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन व्याकरण, प्राकृत व्याकरण, साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, नैषधीय चरित्रः, विद्वद् मुखमंडन काव्य, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिक विश्वगुणादर्शचम्पू विक्रमोर्वशीय, रत्नावली, सुभाषितरत्न संदोह, अष्टादश स्मृति, पिंगल छन्द सुत्र, सिद्धान्त मुक्तावली प्रत्यक्ष खंड तथा माघकाव्य व नेमिनिर्वाण काव्य का भी अध्ययन कराया। अन्य विद्वानों द्वारा लघु कौमुदी, तर्क संग्रह, न्यायदीपिका, वृत्तरत्नाकर, सिन्दूर प्रकर, रघुवंश, किरातार्जुनीय आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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