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________________ ( ४० ) मेरे दीक्षा महोत्सव के अवसर पर मेरे अभ्यास, भावना और साधना में अग्रसर होने की पूर्ण दृढ़ता को देखकर मातुश्री ने मुझे पूज्य गुरुदेव के साथ रहकर साधना की तैयारी करने के लिये आज्ञा दे दी । यह हैं मेरे प्रारम्भिक जीवन के कतिपय संस्मरण । जिनमें मातुश्री ने अपने मोह की अपेक्षा संतान के विकास हेतु वात्सल्य और विवेक को प्रमुखता दी स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ के लिये त्याग किया और पूर्ण रूप से परीक्षा करके योग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य बनने के लिये गुरुदेवत्री को अर्पित कर दिया कि 'शिवास्ते पन्थः सन्तु ।' 1 अब तो ज्ञान एवं संयम में परिपक्वता प्राप्ति के लिये अभ्यास और अध्ययन की ओर मन केन्द्रित हो गया। दैनिक कार्यों के अतिरिक्त समय में अध्ययन और अध्ययन के सिवाय अन्य कोई कार्य नहीं रहे थे । इस समय में किया गया अध्ययन विशेष लाभदायक रहा। जितनी अध्ययन में गति बढ़ती जाती थी उतनी ही और नये अध्ययन के लिये जिज्ञासा बढ़ने लगी। साथ ही संयम साधना के लिये पूर्ण तैयारी देखकर गुरुदेव ने भागवती दीक्षा देने का विचार किया। उनका विचार मेरे लिये महान हर्षदायक था। श्री संघ की अनुमति, पारिवारिक जनों की स्थिति से मिरी ग्राम में भागवती दीक्षा सम्पन्न हो गई। दीक्षा के उपरान्त शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ व्याकरण, साहित्य, न्याय आदि व संस्कृत प्राकृत भाषाओं के पठन-पाठन का क्रम बना रहा योग्य विद्वानों का सुयोग प्राप्त होने से दो माह में शब्दरूपावली, धातुरूपावली, समास चक्र, रघुवंश के दो सर्ग समाप्त हुये । विहार करते हुये गुरुदेव मनमाड़ पधारे । वहाँ काशी के विद्वान श्री व्यंकटेश लेले शास्त्री के पास लघुसिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन दस माह में समाप्त हुआ। इस प्रकार से संस्कृत में कुछ गति हो जाने से तथा सूत्रों की प्रतियों की आवश्यकता होने पर मैंने गुरुदेव से निवेदन किया कि शास्त्रों की प्रतियाँ चाहिये, जिससे अध्ययन होता रहे। गुरुदेव ने जिज्ञासा और रुचि देखकर श्रावकों से आवश्यक सूत्र व ग्रन्थों के लिये संकेत किया और वे प्राप्त हो गये उन दिनों अधिकतर हस्तलिखित शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का प्रचलन था । अतः विभिन्न स्थानों के लिपिकारों के लिपिभेदों से अनेक प्रकार के अक्षरों की बनावट का भी सुगमता से ज्ञान हो गया जिससे प्राचीन लिपियों के पढ़ने में कुछ न कुछ सहायता मिलती थी । संस्कृत व्याकरण लघुसिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन तो अच्छी तरह से हो चुका था तथा संस्कृत साहित्य एवं भाषा का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से गुरुदेव ने सिद्धान्त कौमुदी के अध्ययन की आज्ञा दी। पूना से श्री सिद्धेश्वर शास्त्री जी को गया और आकर अध्ययन प्रारम्भ हो गया। मैं अध्ययन में रत रहता और गुरुदेव श्री स्वयं शिष्य को अधिक से अधिक समय शिक्षण के लिये मिलने के दृष्टिकोण से गोचरी जाते, देख-रेख रखते और समय-समय पर Jain Education International For Private & Personal Use Only गुरुदेव www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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