SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार ५१ 24 का (B मा ) . क्रमदीश्वर ने वररुचि का ही अनुकरण किया है। इनका काल हेमचन्द्र और बोधदेव के बीच १२वीं १३वीं शताब्दी है। (५) प्राकृतव्याकरण—यह व्याकरण त्रिविक्रमदेव ने रचा है। जिस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने सर्वाङ पूर्ण प्राकृत व्याकरण लिखा है, उसी प्रकार त्रिविक्रमदेव का यह सर्वाङ पूर्ण व्याकरण है। इनकी स्वोपज्ञवत्ति और सूत्र दोनों ही उपलब्ध हैं। इस व्याकरण में तीन अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं। इस प्रकार कुल १२ पादों में यह व्याकरण पूर्ण हुआ है। इसमें कुल १०३६ सूत्र हैं। श्री त्रिविक्रमदेव ने हेमचन्द्र के सूत्रों में ही कुछ फेर-फार करके अपने सूत्रों की रचना की है। विषयानुक्रम हेमचन्द्र का ही है। इस व्याकरण में देशी शब्दों के वर्गीकरण से हेमचन्द्र की अपेक्षा नवीनता दिखती है। यद्यपि अपभ्रंश के उदाहरण हेमचन्द्र के ही हैं, परन्तु संस्कृत छाया देकर इन्होंने अपभ्रंश के दोहों को समझाने का प्रयास किया है। श्री त्रिविक्रमदेव ने अनेकार्थक शब्द भी दिये हैं। इन शब्दों के देखने से तत्कालीन भाषाओं का ज्ञान तो होता ही है, पर साथ-साथ अनेक सांस्कृतिक बातों की भी जानकारी मिलती है। इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण की अपेक्षा इस व्याकरण में अनेक विशेषताएँ हैं। इसमें शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची इत्यादि भाषाओं के नियम भी मिलते हैं। इसमें श्री त्रिविक्रमदेव ने मंगलाचरण में वीर भगवान को नमस्कार किया है। ऐतिहासिक विद्वान त्रिविक्रमदेव को दिगम्बर जैन मानते हैं।। इनके व्याकरण के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं। कुछ तो कहत हैं कि सूत्र और वृत्ति दोनों ही त्रिविक्रमदेव के हैं, कुछ विद्वान सूत्रों को बाल्मीकिकृत और वृत्ति त्रिविक्रमकृत मानते हैं। सूत्रों की रचना पाणिनीय के अष्टाध्यायी की काशिका वृत्ति के अनुसार हुई है। इनका समय १२-१५ शताब्दी के बीच का है, क्योंकि हेमचन्द्र के ग्रन्थ का त्रिविक्रमदेव ने अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है और त्रिविक्रमदेव के ग्रन्थ का कुमारस्वामी (सोलहवीं शताब्दी) ने अपने ग्रन्थ रत्नायण में उल्लेख किया है। इन प्रमाणों से त्रिविक्रम का समय हेमचन्द्र और कुमारस्वामी के बीच का ही सम्भव है। पश्चिमी सम्प्रदाय के प्राकृत वैयाकरणों में त्रिविक्रम प्रमुख हैं। (६) प्राकृतरूपावतार–श्री सिंहराज कृत प्राकृतरूपावतार त्रिविक्रमदेव के सूत्रों को ही लघुसिद्धान्त-कौमुदी की पद्धति के रूप में लिखा है। इसमें संक्षेप में सन्धि, शब्दरूप, धातुरूप, समास, तद्धित आदि का विचार किया है। इसमें छह भाग हैं । शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश इन भाषाओं का विवेचन है। संज्ञा और क्रिया पद के ज्ञान के लिए यह व्याकरण बहुत ही उपयोगी है। सिंहराज की तुलना वरदाचार्य के साथ कर सकते हैं। सिंहराज को कुछ विद्वान सिद्धराज भी कहते हैं। सिंहराज ने लक्ष्मीधर की भांति ही सूत्रों पर PAARDarua maABARJANORADABADASANABAJANAwaminate. MAGAMANApriandaindaNASAJANASAJANAawanAGAIAAAJA आपाप्रवभिशापायप्रवर आभ श्रीआनन्दजन्यश्राआनन्दग्रन्थ MARAamirwainme Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainalibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy