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________________ अायामप्रकार आनन्द भाचार्यप्रवी श्रीआनन्द अन्य - - Mom MAmarwarsery wwwmove wmvM प्राकृत भाषा और साहित्य 6 इस व्याकरण में चार पाद हैं । प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इसमें सन्धि, व्यंजनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय और व्यंजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। द्वितीय पाद के २१८ सूत्र हैं। इसमें संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है । तृतीय पाद में १८२ सूत्र है। इसमें कारक, विभक्तियाँ तथा क्रिया रचना सम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। चौथे पाद में ४४८ सूत्र हैं। आरम्भ के २४६ सूत्रों में धात्वादेश और आगे क्रमशः शौरसेनी इत्यादि छह भाषाओं का निरूपण किया गया है । आचार्य श्री हेमचन्द्र के मत से प्राकृत शब्द तीन प्रकार के हैं-तत्सम, तद्भव और देशज; इसमें से तद्भव शब्दों का अनुशासन इस व्याकरण में किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'आर्षम" ८/१/३ सूत्र में आर्ष प्राकृत का नामोल्लेख किया है और बतलाया है कि- "आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति, तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्पयन्ते" अर्थात अधिक प्राचीन प्राकृत आर्ष-आगमिक प्राकृत है। इसमें प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं। हेमचन्द्र ने विषय-विस्तार में बड़ी पटता बताई है। आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत शब्दों के प्राकृत में जो आदेश किये हैं, वे भाषाविज्ञान से मेल नहीं खाते । उदाहरण स्वरूप “गम" धातु का हिण्ड या भम्म' नहीं बन सकता। हेमचन्द्र ने केवल अर्थ का ध्यान रखा है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए उचित होगा कि मूल धातुओं की खोज ये । पाणिनि के धात पाठ में "हिण्डिगतो" स्वतन्त्र धात है। जिसके रूप "हिण्डति" इत्यादि बनते हैं। इसी प्रकार "भ्रम" धातु भी स्वतन्त्र है। यदि इस प्रकार भी सदृश्य धातुओं का ध्यान रखा जाये तो अध्ययन अधिक वैज्ञानिक हो सकेगा। (४) संक्षिप्तसार-श्री क्रमदीश्वर का यह व्याकरण संस्कृत, प्राकत इन दोनों भाषा पर लिखा है और सिद्धहेम व्याकरण की तरह इसमें भी वें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का विचार किया है । उसे "प्राकृतपाद" की संज्ञा दी है। इस ग्रन्थ में प्राकृत के व्याकरण के छह विभाग किये हैं (१) स्वरकार्य, (२) हलकार्य, (३) सुबन्तकार्य, (४) तिङन्तकार्य, (५) अपभ्रंगकार्य और (६) छन्द कार्य । क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार व्याकरण पर एक छोटी-सी टीका भी लिखी है । इस पर और तीन टीका हैं, जो प्रकाशित नहीं हुई हैं (१) जमरनन्दिन् की रसवती, (२) चण्डिदेव शर्मन की प्राकृतदीपिका, (३) विद्या विनोदाचार्य की प्राकृतपाद टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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