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________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा । फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवर्द्धनशील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हुई । तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था । अब उसमें एक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, राजनीति, सदाचार, समाज-व्यवस्था, लोकरंजन प्रभृति जीवन के विविध अंगों का संस्पर्श करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी । प्राकृत में यह सब चल रहा था । लोक-जीवन में रची- पची होने के कारण लोक - चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी । अत: उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सर्जन हुआ, उसके भीतर चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का । उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा सकता है । महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संवद्धित होता रहा है । महाभारत में श्रमण संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चर्चित हुए हैं, यह सब इसी स्थिति का परिणाम है । भाषावैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्वपूर्ण विषय है । अस्तु -- एतन्मूलक (संस्कृत) साहित्य प्राकृतभाषी जन समुदाय में भी प्रवेश पाने लगा । इस क्रम के बीच प्रयुज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ । यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवर्तन की गुंजायश नहीं हैं, पर फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने योग्य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसी बातें समाविष्ट होने लगती हैं, जो उन भाषा-भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकूलता लाने वाली होती हैं । उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है । उसका शब्द-कोश भी समृद्धि पाने लगता है । शब्दों के अर्थ में भी जहाँ-तहाँ परिवर्तन हो जाता है । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है, वे नये-नये अर्थ ग्रहण करने लगते हैं । विकल्प और अपवाद कम हो जाते हैं। साथ ही साथ एक बात और घटित होती है, जब अन्य भाषा-भाषी लोग किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता । ३१ यह सब हुआ, पर भगवान् महावीर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोत्तर गतिशील और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपर्युक्त रूप में सरलता और लोक-जनीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी । अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषतः विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गई । लम्बे-लम्बे समास, दुरूह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर तथा कृत्रिमतापूर्ण पदरचना और वाक्यरचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया । सामान्य पाठकों की पहुँच उस तक कैसे होती । 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only 康 श्री आनन्दन ग्रन्थ : 39 श्री आनन्द थ www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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