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________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद ७ । है। इस पुष्पित, फलित तथा चन्द्रमा व तारों की तरह प्रतिमण्डित अक्षर-समम्नाय को शब्द-रूप ब्रह्मतत्त्व समझना चाहिए। इसके ज्ञान से सब वेदों के अध्ययन से मिलने वाला पुण्य-फल प्राप्त होता है। इसके अध्येता के माता-पिता स्वर्ग में गौरवान्वित होते हैं।" अस्तु, साधारणतया भाषा वैज्ञानिक प्राकृतों को मध्यकालीन आर्यभाषा काल में लेते हैं। जैसा कि उल्लेख किया गया है, वे ५०० ई० पूर्व से १००० ई० तक का समय इसमें गिनते हैं । कतिपय विद्वान् ६०० ई० पूर्व से इसका प्रारम्भ तथा ११०० या १२०० ई० तक समापन स्वीकार करते हैं। प्राकृत-काल--तीन भागों में स्थूल रूप में यह लगभग मिलती-जुलती-सी बात है। क्योंकि भाषाओं के विकास-क्रम में काल का सर्वथा इत्थंभूत अनुमान सम्भव नहीं होता। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल को प्राकृत-काल भी कहा जाता है । यह पूरा काल तीन भागों में और बांटा जाता है—प्रथम प्राकृत-काल, द्वितीय प्राकृतकाल, तृतीय प्राकृत-काल । प्रथम प्राकृत-काल प्रारम्भ से अर्थात् ५०० ई० पूर्व से ई० सन् के आरम्भ तक माना जाता है । इसमें पालि तथा शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है । दूसरा काल ई० सन् से ५०० ई० तक का माना जाता हैं। इसमें प्रवृत्त भाषा प्राकृत नाम से अभिहित की गई है। प्राकृत के अन्तर्गत कई प्रकार की प्राकृतों का समावेश है, जिनके स्वतन्त्र रूप स्पष्ट हो चुके थे। तीसरे काल की अवधि ५०० ई० से १००० ई० तक मानी जाती है । इसकी भाषा का नाम अपभ्रंश है, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकास था। पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ ने भी पाइअ सहमहण्णवो की भूमिका में इस प्राकृत-काल को, जिसे उन्होंने द्वितीय स्तर की प्राकृतों का समय कहा है, तीन युगों में विभक्त किया है। प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण में उपयोगी होने से उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है : प्रथम युग (विस्त पूर्व ४०० ई० से ख्रिस्त के बाद १०० ई०) (क) हीनयान बौद्धों के त्रिपिटक, महावंश और जातक प्रभृति ग्रन्थों की पालि-भाषा । (ख) पैशाची और चूलिका पैशाची। (ग) जैन आगम-ग्रन्थों की अद्धमागधी भाषा । (घ) अंगग्रन्थभिन्न प्राचीन सूत्रों की और पउमचरिअं आदि प्राचीन ग्रन्थों की जैन महाराष्ट्री भाषा। (ङ) अशोक-शिलालेखों की एवं परवतिकाल के प्राचीन शिलालेखों की भाषा । अश्वघोष के नाटकों की भाषा मध्ययुग (शिस्तीय १०० से ५००)। (क) त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित मासचरित कहे जाते नाटकों और बाद के कालिदास प्रभति के नाटकों की शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री भाषाएँ। १. सोऽयमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः सर्ववेदपुण्यफलावाप्तिश्चास्य ज्ञाने भवति, माता पितरी चास्य स्वर्गे लोके महीयेते । -महाभाष्य, द्वितीय आन्हिक, पृष्ठ ११३ AMARCANJANAMAN- OADCASION WEREअभा श्रीअन्दर INivaranwavimeopranamurarima hommrapmiews Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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