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________________ आवाज श्री आवन्द WEDN फ्र आचार्य श्री आनन्द अभि ग्रन्थ प्राकृत भाषा और साहित्य अभिनंद अन् फिर इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे लिखते हैं— " हो सकता है, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों, स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों । उन्हें प्राप्त करने का यत्न कीजिए । शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल । यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है । चार वेद हैं । उनके छः अंग हैं । उनके रहस्य या तत्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ हैं, जो परस्पर भिन्न हैं । सामवेद की एक हजार मार्ग - परम्पराएँ हैं । ऋग्वेदियों के आम्नाय - परम्परा क्रम इक्कीस प्रकार के हैं । अथर्ववेद नौ रूपों में विभक्त है । वाकोवाक्य ( प्रश्नोत्तरात्मक ग्रन्थ) इतिहास, पुराण, आयुर्वेद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं । शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना यों कहना कि अमुक शब्द अप्रयुक्त हैं, केवल दुःसाहस है । "" पतंजलि के उपर्युक्त कथन में दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं, एक यह है— संस्कृत के कतिपय शब्द लोकभाषा के ढाँचे में ढलते जा रहे थे। उससे उनका व्याकरण - शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता । लोक-भाषाओं के ढाँचे में ढला हुआ - किंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर पतंजलि जोर देते हैं। क्योंकि वैसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी । शश-षष, पलाश - पलाष, मञ्चक, मञ्जक जो पतंजलि द्वारा उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक हैं । दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक भाषाओं में इतने घुलमिल गये होंगे कि उनमें प्रयोग सहज हो गया । सामान्यतः वे लोकभाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों । संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई । वहाँ उनका प्रयोग बन्द हो गया । हो सकता है, आपातत: संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिया गया हो या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गई हो । पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवतः इन बातों का असर रहा हो। इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रांति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं। Jain Education International शुद्ध वाक्-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक्-व्यवहार को अक्षुण्ण बनाये रखने की पतंजलि को कितनी चिन्ता थी, यह उनके उस कथन से स्पष्ट हो जाता हैं जिसमें उन्होंने अक्षर-समम्नाय के ज्ञान को परम पुण्यदायक एवं श्रेयस्कर बताया है । उन्होंने लिखा है : "यह अक्षर-समम्नाय ही वाक्समम्नाय है अर्थात् वाक्-वाणी या भाषा रूप में परिणत होने वाला १. सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महाञ्छब्दस्य प्रयोग विषयः । सप्त द्वीपा वसुमती त्रयो लोका, चत्वारो वेदा:, साङ्गाः सरहस्याः, बहुधा भिन्ना एकादश मध्वर्यु शाखा:, सहस्रवर्त्मा सामवेद: एकविंशतिधा बाहवृच्यं, नवधाऽऽथर्वणोवेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहासः, पुराणम् । वैद्यकमित्येतावाञ्छन्दस्य प्रयोग विषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमात्रमेव । - महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ३२-३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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