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________________ श्राआनन्द अथ श्रीआनन्दा अन्य w wwaamve mamawimariwwwmamme ३६८ धर्म और दर्शन नय के साथ व्यवहारनय का भी उल्लेख मिलता है। निश्चयनय-तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन करता है ।२४ व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध अर्थ का अनुसरण करता है । २५ निश्चयनय की मान्यता है कि भ्रमर का शरीर पांच वर्णवाला होता है अतः भ्रमर को पांच वर्णवाला मानता है तथा व्यवहारनय की मान्यता है कि भ्रमर कृष्णवर्णवाला है क्योंकि उसका शरीर कृष्ण वर्ण का है। कहीं-कहीं उपरोक्त दोनों नयों की यह भी परिभाषा उपलब्ध होती है-सर्वनयों के अभिमत अर्थ को ग्रहण करने को निश्चय नय कहते हैं (सर्वनयमतार्थग्राही निश्चयः) तथा किसी भी एक नय के अभिप्राय को अनुसरण करने को व्यवहारनय कहते हैं, (एकनयमतार्थ ग्राही व्यवहारः)। अस्तु प्रमाण इन्द्रिय और मन-सब से हो सकता है किन्तु नय सिर्फ मन से ही होता है क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से हो सकता है। जब हम अंशों की कल्पना करने लग जाते हैं तब वह ज्ञान 'नय' कहलाता है ।२६ अन्य वादी परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखने वाले हे भगवान् आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है । आपका सिद्धान्त ईर्ष्या से रहित है क्योंकि आप नैगमादि सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते हैं। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बनकर तैयार हो जाता है । उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वाद रूपी सूत्र में पिरो देने से सम्पूर्ण नय 'श्रुत प्रमाण' कहे जाते हैं। परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर 'स्यात्' शब्द से विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्रीभाव से एकत्र रहने लगते हैं । अतः भगवान् महावीर के शासन के सर्व नयस्वरूप होने से उनका शासन संपूर्ण दर्शनों से अविरुद्ध है क्योंकि प्रत्येक दर्शन नयस्वरूप है ।२७ हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण नयस्वरूप दर्शनों को मध्यस्थभाव से देखते हैं अतः आप ईर्ष्यालु नहीं हैं । क्योंकि आप एक पक्ष का आग्रह करके दूसरे पक्ष का तिरस्कार नहीं करते हैं । हे भगवन् ! आपने केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को यथार्थ रीति से जानकर नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है। अन्यान्य तैर्थिक रागद्वेषादि दोषों से युक्त होने के कारण यथार्थदर्शी नहीं हैं। अतः दुर्नयों का निराकरण नहीं कर सकते हैं । २८ आचार्य हेमचन्द्र २६ ने कहा है कि एकान्तवादी लोग दुर्नयवाद में आसक्तिरूप खङ्ग से २४ तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चयः । -जैनतर्कभाषा २५ लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारनयः । -जैनतर्कभाषा २६ तत्राऽनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायोनयः । -प्रमेयकमलमार्तण्ड ६१ २७ सापेक्षाः परस्परसंबद्धास्ते नयाः । -अष्टश० १०६ २८ स्यादवाद: सर्वथैकान्तात्यन्तिकं वृत्तचिदविधिः । सप्तभंगनयापेक्षो हेत्वादेविशेषिकः ।। -आप्तमीमांसा २६ स्याद्वादमंजरी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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