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________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६७ विषय ऋजुसूत्र से अधिक है । इसी प्रकार शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का, समभिरूढ़ २१ से शब्द - नय का, एवंभूतनय २२ से समभिरूढ़नय का अधिक विषय है । प्रमाण के सात भंगों की तरह अपने विषय में विधि और प्रतिषेध की अपेक्षा नय के भी सात भंग होते हैं । २३ सभी पदार्थ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा अनित्य हैं । केवल द्रव्यार्थिकनय को मानने वाले अद्वैतवादी, कोई मीमांसक और सांख्यक सामान्य को ही सत् ( वाच्य ) कहते हैं । केवल पर्यायार्थिकनय को मानने वाले बौद्ध लोग विशेष को सत् कहते हैं । केवल नैगमनय का अनुकरण करनेवाले न्याय वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष — दोनों को स्वीकार करते हैं । सम्मतितर्क में कहा है उप्पज्जेति वियति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । व्यस सव्वं सया अणुप्पन्नमविण ॥२१॥ अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद और विनाश स्वभाव वाले हैं । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा सर्व वस्तु अनुत्पन्नअनष्ट हैं अर्थात् प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाव वाले 1 तित्थयरवयणसंगह विपत्थर सूवागरणी । दव्वट्टिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्यासि ॥ ३ ॥ अर्थात् तीर्थंकर के वचन के विषयभूत ( अभिधेयभूत) द्रव्य-पर्याय हैं, उनका संग्रहादि नय के द्वारा जो विस्तार करने में आते हैं उनका मूल वक्ता द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय है । नैगमादि नय उनके विकल्प हैं, भेद हैं। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्यार्थिक नय समस्त पदार्थों को केवल द्रव्य रूप जानता है क्योंकि द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं । संपूर्ण पदार्थ सामान्य विशेष रूप से ही अनुभव में आते हैं । अत: अनेकवाद में ही वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व लक्षण सम्यग् प्रकार से घटित हो सकता है । सामान्य और विशेष परस्पर सापेक्ष हैं। बिना सामान्य के विशेष और विशेष के बिना सामान्य कहीं भी ठहर नहीं सकते । अतः विशेष निरपेक्ष सामान्य को अथवा सामान्य निरपेक्ष विशेष को तत्त्व मानना केवल प्रलाप मात्र है । जिस प्रकार जन्मांध मनुष्य हाथी का स्वरूप जानने की इच्छा से हाथी के भिन्नभिन्न अवयवों को टटोलकर हाथी के केवल कान, सूंड, पैर आदि को ही हाथी समझ बैठते हैं उसी प्रकार एकांत व्यक्ति वस्तु के सिर्फ एकांश को जानकर उस वस्तु के एक अंश रूप ज्ञान को ही वस्तु का सर्वांशात्मक ज्ञान समझने लगते हैं । संपूर्ण नय स्वरूप स्याद्वाद के बिना किसी भी वस्तु का सम्यक् प्रकार से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । सिद्धांत में लौकिक व्यवहार के अनुसार भी नय का प्रतिपादन उपलब्ध होता है । निश्चय २१ पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहन् समभिरूढः । २२ शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थं वाच्यत्वेनाभ्युपच्छन्नेवंभूतः । २३ नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुव्रजति । Jain Education International - जैनतर्कभाषा — जैनतर्कभाषा For Private & Personal Use Only -प्रमाणनय० प्र ७ आचार्य प्रव आचार्य प्रवरासत अभिनंदन आआनन्दर 50 Clo फ्र END SASALAMAND www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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