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________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८६ जायें जिनको अवश्यमेव भोगना ही पड़े। उद्वर्तना व अपवर्तना करण की उपयोगिता इस में है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति व भाव करना चाहिये जिससे दुष्कर्म घटे व शुभ कर्म बढ़े। संक्रमण करण की उपयोगिता अनिष्ट व कुफल फलदायी पाप प्रवृत्तियों को इष्ट व सुफलदायी पुण्य प्रकृतियों में रूपान्तरण करने में है। उदीरणा करण का लाभ कर्म को प्रयत्न द्वारा समय से पूर्व उदय में लाकर अल्पफल भोगते हुए क्षय कर दिया जाय । उपशमना करण का लाभ है प्रयत्न द्वारा उदय को निष्फल बना देना। इस प्रकार कर्म-विज्ञान का करणज्ञान कर्म या भाग्य निर्माण की परिवर्तन, परिवर्धन, परिशमन, परिशोधन, संरचना, संक्रमण करने की कला का ज्ञान है। ___ जिस प्रकार शारीरिक या मानसिक चिकित्साशास्त्र के दो प्रधान विभाग होते हैं, एक में शरीर या मन की संरचना व उनमें उत्पन्न होने वाले विकारों का स्वरूप निरूपण होता है, दूसरे में शरीर या मन में उत्पन्न विकारों का उपचार । इसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र या कर्मविज्ञान के भी दो विभाग हैं-प्रथम आत्मा में उत्पन्न विकारों के स्वरूप का निरूपण करनेवाला और दूसरा उन विकारों को दूर करने का उपचार बताने वाला। प्रथम विभाग का बंधतत्त्व के रूप में निरूपण है जिसका बंध के प्रकार व करण के रूप में ऊपर संक्षिप्त विवेचन दिया गया है, इसका विस्तृत वर्णन लाखों श्लोक प्रमाण बीसों कर्म ग्रंथों में आज भी विद्यमान है। दूसरा विभाग उपचार का है। उपचार का ही दूसरा नाम साधना है, इसके भी दो खण्ड हैं-प्रथम विकारोत्पत्ति को रोकने के उपाय बनानेवाला इसे संवर तत्व कहा जाता है और दूसरा खण्ड है संचित विकारों के नाश के उपायों का ज्ञान करानेवाला, इसे निर्जरा तत्व कहा जाता है। संवर-दुर्भाग्य से बचने के उपाय (१) अज्ञान (२) असंयम (३) लापरवाही (४) लोलुपता और (५) अनुचित प्रवृत्तियाँ ये पांच बातें जिस प्रकार शारीरिक एवं मानसिक विकारोत्पत्ति में कारण हैं उसी प्रकार आत्मिक विकारोत्पत्ति (कर्मबंध) में भी कारण हैं। कर्मबंध के इन कारणों को अध्यात्म शास्त्र में आश्रव कहा जाता है। इनका विस्तृत वर्णन आश्रव तत्व में किया गया है । इन पापों का त्याग कर देना ही विकारोत्पत्ति से बचने का उपाय है। अध्यात्म शास्त्र में इनसे बचने के उपायों को संवर कहा है, कर्मबंध रोकने का उपाय कहा है। प्राणी का जीवन तन, मन व वचन की सक्रियता पर निर्भर है। अतः जब तक जीवन है तब तक इनकी सक्रियता रहती है। या यों कहें कि जब तक तन-मन सक्रिय हैं तभी तक जीवन है। आशय यह है कि जब तक जीवन है तब तक तन-मन अवश्य सक्रिय रहने वाले हैं। मरने पर ही इनकी निष्क्रियता संभव है। सक्रियता का ही दूसरा नाम प्रवृत्ति या व्यवसाय है। अतः उपयुक्त पांचों कारण जो असद्प्रवृत्तियों के रूप में हैं इन्हें सद्प्रवृत्तियों में परिणत कर दिया जाय । इन पांचों आश्रव द्वारों के स्थान पर (१) सम्यक्त्व, (२) विरति (३) अप्रमाद (४) अकषाय और (५) शुभ योग को स्थान देना ही संवर है। सम्यक्त्व-अपना हित किस में है, अहित किस में, यह विवेक होना ही सम्यक्त्व है । जिस प्रकार हिताहित का विवेक होने से व्यक्ति ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो शरीर के लिए हितकारी हैं, विकार उत्पन्न नहीं करने वाले हैं। इसी प्रकार हिताहित का विवेक होने से व्यक्ति को पाप कार्यों से बचने का ज्ञान होता है और वह अपने को अहितकारी वृत्तियों से बचाता रहता है। विरति- भोग रोग के कारण हैं। विवेक से यह जानकर भोगों से विरत होना, संयम धारण करना विरति है । जिस प्रकार खान-पान, रहन-सहन का असंयम शारीरिक रोगों का कारण TRENGT आचार्यप्रवभिनयप्र0आम श्रीआनन्दशश्रीआनन्द eurorwwwwwwwwwwwwvomawarwwwmarawamannamrunomimm a avyvar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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