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________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८७ NACEAM HING M कुत्सित प्रकृतियों को सद् प्रकृतियों में संक्रमण करण या उदात्तीकरण के लिए आवश्यक है कि पहले व्यक्ति के हृदय में भोगों के क्षणिक अस्थायी सुख के स्थान पर स्थायी सुख प्राप्ति का भाव जागृत किया जाय । भावी सुख के लिए तात्कालिक क्षणिक सुख का त्याग करने की प्रेरणा दी जाय। इस प्रकार प्रथम स्वार्थपरक आत्मसंयम की योग्गता पैदा होती है फिर दूसरों के सुख के लिए अपने सुख का त्याग करने की योग्यता आती है। इससे स्थायी आनन्द के रसास्वादन का अनुभव होता है। रसास्वादन का यह बीज सेवाभाव, परोपकार के रूप में पल्लवित, पुष्पित व फलित होता है । और अन्त में सर्वहितकारी प्रवृत्ति का रूप ले लेता है। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण या उदात्तीकरण केवल सजातीय प्रवृत्तियों में ही सम्भव माना है विजातीय प्रवृत्तियों में नहीं। इसी प्रकार कर्म-विज्ञान में संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में सम्भव माना है विजातीय प्रकृतियों में नहीं। यह समानता आश्चर्यजनक है । मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि उदात्तीकरण शारीरिक एवं मानसिक रोगों के उपचार में, जीवन के उत्थान में बड़ा कारगर उपाय है। मनोविज्ञानशालाओं में असाध्य प्रतीत होने वाले महारोग भी उदात्तीकरण से ठीक होते देखे गये हैं। जिस प्रकार अशुभ प्रवृत्तियों का शुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण होता है, यह जीवन के उत्थान में उपयोगी है। इसी प्रकार शुभ प्रवृत्तियों का भी अशुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण-संक्रमण होता है यह जीवन के अधःपतन का कारण बनता है । सज्जन, भले व्यक्ति जब कुसंगति, कुत्सित वातावरण में पड़ जाते हैं और उससे प्रभावित हो जाते हैं तो उनकी शुभ प्रवृत्तियाँ अशुभ प्रवृत्तियों में परिवर्तित हो जाती है जिससे उनका मानसिक एवं नैतिक पतन हो जाता है। परिणामस्वरूप उनके समक्ष अनेक कष्ट, विपत्तियाँ, रोग, अशांति, रिक्तता, हीनभावना, अनिद्रा आदि अवांछनीय स्थितियाँ उपस्थित हो जाती हैं। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार कर्मविज्ञान में संक्रमण करण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कषाय पाहुड की टीका जयधवला में संक्रमण करण का विस्तार में महाभारत ही बन गया है । उद्वर्तन, अपवर्तन आदि करण संक्रमण करण के ही अंग हैं। अभिप्राय यह है कि संक्रमण करण के सिद्धान्तों का अनुसरण कर व्यक्ति नर से नारायण, भिखारी से भगवान, हीन से महान, दुरात्मा से महात्मा, भाग्यहीन से भाग्यवान, दु:खी से सुखी बन सकता है तथा अपने जीवन को पतन से बचा सकता है, अपने भाग्य का इच्छानुसार निर्माण कर सकता है। आपत्तियों एवं विपत्तियों से अपनी रक्षा कर सकता है। प्रसन्नचन्द राजर्षि ध्यान में स्थित थे तब राहगीर से जब यह सुना कि शत्रु मेरी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मेरे राज्य को छीनने को उतारू हो गया है तो उनका हृदय तीव्र कषाय से भर गया और सातवें नर्क की मनोस्थिति बन गई, तत्काल विवेक से मानसिक प्रवृत्ति में संक्रमण किया और केवलज्ञान को प्राप्त हो गये, यह है संक्रमण करण का चमत्कार । उदीरणा करण जिस कारण से कर्म स्वाभाविक उदय में आने के समय के पूर्व ही प्रयत्न या पुरुषार्थ से उदय में लाकर फल पा लेना उदीरणाकरण है। जिस प्रकार शरीर में स्थित कोई विकास कालान्तर में रोग रूप में फल देने वाला है उसके फल को टीका लगा अथवा दवा आदि के प्रयत्न द्वारा पहले ही पा लेने से विकार से शीघ्र मुक्ति मिल जाती है। उदाहरणार्थ-चेचक का टीका लगाने से चेचक का विकार समय से पहले अपना फल दे देता है फिर आगे उससे छुटकारा मिल जाता है। पेट में बया Sapanimal READHAMAAJanuKinHAAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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