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________________ NABANASANAPANJANAMANALIAADABAJAJANAMAN ععععععععععععمعمو सपा प्रवर अभिवसागप्रवरा अभिनय श्रीआनन्दाथाश्रीआनन्दान हि ३६० धर्म और दर्शन wayvargvaviiiiiiwwwimm आकाश द्रव्य में पांचों अजीव द्रव्य और जीव द्रव्य ये षट् द्रव्य क्षेत्रावगाही और परस्पर ओत-प्रोत होकर रहते हैं। एक साथ रहते हुए भी ये षट् द्रव्य अपना-अपना स्वभाव और अस्तित्व खो नहीं पाते । हर एक द्रव्य अपने में अवस्थित है। जीव न कभी अजीव हुआ, न अजीव कभी जीव हुआ है। यही पंचास्तिकाय में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'षट द्रव्य परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करते है, परस्पर अवकाश दान करते हैं, सदा-सर्वदा काल मिल-जुल कर रहते हैं, तथापि वे कभी भी अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते। १५ अजीव द्रव्य सत् है। इसमें यथार्थ की दृष्टि से उत्पाद और व्यय होते रहते हैं। एक पर्याय का नाश 'व्यय' कहलाता है। और नूतन पर्याय (Modification) उत्पन्न होना 'उत्पाद' कहलाता है। पर्याय और व्ययात्मक अवस्था में भी वस्तु के गुणों का अस्तित्व का अचल रहना ही 'ध्रौव्य' है। पंचास्तिकाय षट् द्रव्यों में से पांच-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अस्तिकाय हैं । 'कालद्रव्य' आस्तिकाय नहीं है। 'अस्ति+काय' अस्तिकाय यह एक यौगिक शब्द है। आस्ति का अर्थ है प्रदेश, काय का अर्थ है-'समूह' अर्थात् जो अनेक प्रदेशों का समूह हो वह अस्तिकाय ७ है। अन्यत्र दूसरी व्याख्या देखने में आती है। 'अस्ति' अर्थात् 'अस्तित्व' जिसका अस्तित्व है और 'काय' के समान जिसके बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार भी कह सकते हैं- 'जो है और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह 'अस्तिकाय' है ।१८ अतएव काल द्रव्य के बिना शेष चार द्रव्य अपनी सत्ता में अनन्य हैं, अनेक प्रदेशी हैं और उनका सामान्य और विशेष अस्तित्व नियत है, गुण और पर्याय सहित अस्तित्व भाव रूप है।१६ जीव, धर्म, अधर्म के असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के भी असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल के प्रदेश, संख्यात असंख्यात और अनन्त हैं । 'काल-द्रव्य' अस्तित्व रखता है परन्तु बहुप्रदेशी न होने के कारण उसका समावेश अस्तिकाय में नहीं किया। ___"एक पुद्गल-परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है, उतने भाग को 'प्रदेश' कहा है।" पुद्गल परमाणु की व्याख्या हम आगे करेंगे। अतः पंच द्रव्य 'अस्तिकाय' हैं इसलिए पंचास्तिकाय का चलन हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी नाम से एक ग्रन्थ भी लिखा । भगवान महावीर के समय पंचास्तिकाय को लेकर वाद-विवाद हुआ२० था। पुद्गल-द्रव्य अजीव द्रव्यों को अचेतन नाम से जाना जाता है। विज्ञान जिसको Matter और न्यायवैशेषिक भौतिक-तत्त्व और सांख्य में जिसे प्रकृति कहते हैं, उसे जैनदर्शन में पुद्गल संज्ञा दी गई है। बौद्धदर्शन में 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग आलय-विज्ञान, चेतना, सन्तति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैनागम में भी उपचार से पुद्गलयुक्त (शरीरयुक्त) आत्मा को 'पुद्गल२१ कहा गया है। परन्तु सामान्यतया प्रमुखता से पुद्गल का प्रयोग अजीव मूर्तिक द्रव्य के लिए ही हुआ है । १५ पंचास्तिकाय ११७ १६ तत्त्वार्थसूत्र ५।१; द्रव्यसंग्रह-२३; स्थानांग ४।१।१२५ १७ भगवतीसार पृ० २३८. १८ द्रव्यसंग्रह २४, १६ पंचास्तिकाय ४१५ २० भगवती १८७; ७।१० २१ वही ८।१०-३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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