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________________ आचार्मप्रवभिRASISH 19 Rio श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दन ____३४६ धर्म और दर्शन कस्तूरी कुंडली बस, मग ढूंड बन मांहि । ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नांहि ॥१॥-कबीर ग्रन्थावली, पृ० २६७ अर्थात् कस्तूरी तो मृग की कुडली में रहती है, किन्तु उसको न जानने वाला मृग गन्ध को, कहीं अन्यत्र से आता हुआ जानकर जंगल के पौधों में ढूढ़ता फिरता है, ठीक इसी प्रकार राम भी घट-घट में बसे हुए आनन्द की तरंगों को लहराते हैं, किन्तु दुनिया उन्हें नहीं जान पाती, अतः मृग की तरह जगतारण्य में उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। मुनि योगीन्दु एवं रामसिंह ने परमात्मा को वर्ण, रस, गन्ध एवं स्पर्श रहित बतलाया है। उनके अनुसार वीतराग, निराकार, निर्विकार, अजर एवं अमर है। उस निरञ्जन स्वरूप शुद्धात्मा को ही उन्होंने उपादेय कहा है। जा सुण वण्णु ण गंघु रसु जासु ण सद्द, ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ णिरंजणु तासु ॥१९॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० २७ जिस भगवान के सफेद, काला, लाल, पीला, नील स्वरूप पांच प्रकार वर्ण नहीं हैं, सुगन्धदुर्गन्ध रूप दो प्रकार की गन्ध नहीं है, कषाय रूप पांच रस नहीं है, जिसके भाषा-अभाषारूप शब्द नहीं है। शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मदु, कठिन रूप आठ तरह का स्पर्श नहीं है और जो जन्म, जरा, मृत्यु से रहित है, उसी चिदानन्द शुद्धस्वभाव परमात्मा की निरञ्जन संज्ञा है। देहहि उभउ जरमरणु देहहि वण्ण विचित्त । देहहो रोया जाणि तुहं देहहि लिग मित्त ॥३४॥ अस्थि ण उभउ जरमरण रोय वि लिंगई वण्ण । णिच्छइ अप्पा जाणि तुहुँ जीवहो जक्क विसण्ण ॥३५॥ वण्ण विहूणउ णाणमउ जो भावइ सम्भाउ । संतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ ॥३८॥ --पाहुड, पृ० १२ कबीर ने योगीन्दु एवं रामसिंह के समान ही परमात्मा की चर्चा करते हुए कहा है कि वह अलख, निरञ्जन, निराकार, वर्ण-विहीन, रूप-रेख-विहीन, वेद-विवजित, पाप-पुण्य-विवर्जित एवं भेष-विवर्जित है अलख निरञ्जन लखै न कोई, निरर्भ निराकार है सोई। सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहीं पेखा ॥ बरन अबरन कथयो नहीं जाई, सकल अतीत चट रह.यौ समाई ॥१३॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ५४२ बेदविजित, भेद विजित, विजित पापरु पुण्यं । ग्यान बिजित ध्यान विंबजित. बिजित अस्थल संन्यं ।। मेष बिजित भीख बिबजित, बिजित डयंभक रूपं । कहै कबीर तिहुँ लोक विजित, ऐसा तत्त अनूपं ॥२२॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४३६ परमब्रह्म के विविष नाम ज्ञानस्वरूप अविनाशी परमात्मा को यदि किसी भी नाम से पुकारा जाय तो उसके गुण और स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आता। इसलिए जैन-कवियों ने परमात्मा को अनेक नामों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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