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________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३४५ जैनों का परमात्मतत्त्व और कबीर का ब्रह्म गम्भीर चिन्तन के बाद जैन कवियों ने आत्मा और परमात्मा विषयक अपने मौलिक विचार बड़े ही उन्मुक्त भाव से व्यक्त किये हैं। उनके शब्दों में कर्मरहित आत्मा ही परमात्मा है। जब तक कर्मबन्ध रहता है, तभी तक यह जीव संसार-वन में भ्रमण करता रहता है एवं पराधीन होकर दूसरे का जाप करता रहता है, किन्तु जब उसे अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब उस समय यही आत्मा, परमात्मा बन जाता है। सभी रहस्यवादी कवियों का यह भी विश्वास है कि परमात्मा का निवास शरीर में ही है। मुनि योगीन्द्र ने कहा है कि जो शुद्ध, निर्विकार आत्मा लोकाकाश में स्थित है, वही इस देह में भी विद्यमान है । उन्होंने इसी देह में उनके दर्शन करने का उपदेश दिया है । यथा जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ में करि भेउ ॥२६॥ परमात्मप्रकाश, पृ० २३ अर्थात्-जैसा केवलज्ञानादि अनन्तगुण रूप सिद्ध परमेष्ठी देवाधिदेव परम आराध्यदेव मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही परब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध स्वभाव वाला परमात्मा इस शरीर में तिष्ठता है, इसलिए सिद्ध भगवान में और अपने में भेद मत करो। योगीन्दु को उक्त कथनमात्र से ही सन्तोष नहीं हआ, अतः उसी बात को पुनः दुहराते हैं और कहते हैं कि शरीर स्थित जो यह आत्मा है, वही परमात्मा है णियमणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाइ । हंसा सरवरि लोणु जिम महु एहउ पडिहाइ ॥११२॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० १२३ अर्थात--रागादि तरंगों से रहित ज्ञानियों के मन में अनादि देव शुद्धात्मा निवास कर रहा है। जैसे हंसों का निवासस्थान मानसरोवर है, उसी प्रकार ब्रह्म का निवासस्थान ज्ञानियों का निर्मल चित है। कबीर ने भी अपने आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन करने का अनुरोध किया है। वे कहते हैं कि आत्मा एवं परमात्मा एक ही हैं और उसका निवास स्वयं के शरीर रूपी देवालय में ही है। इसके लिए वे मृग-कस्तूरी की उपमा देते हुए कहते हैं-कि जिस प्रकार मोहवश मृग स्वयं स्थित कस्तूरी-गन्ध की खोज में इधर-उधर तो भटकता रहता है, किन्तु अज्ञानवश अपनी नाभि में उसे नहीं देख पाता, उसी प्रकार मोह, माया, एवं अज्ञानवश लोग परमात्मा की खोज तीर्थों, मन्दिरों एवं मस्जिदों में तो करते हैं, किन्तु अपने शरीर में ही स्थित उसकी खोज नहीं करते । वे कहते हैंहरि मैं तन है, तन में हरि हैं, है सुनि नाहीं सोइ ॥२६३॥-कबीर ग्रं०, पृ० ४७७ में ही शरीर है, हरि शरीर में तथा यह शरीर रहता भी नहीं। झंझा निकट जुघटु रहिओ दूरि कहा तजि जाइ। . जा कारिणि जग ढूढ़ि अउ नेरउ पाइ अउ ताहि ॥१६॥ -सन्तकबीर, पृ० ८० अर्थात्-जब चंचु (अर्थात् शरीर) के निकट ही घर (अर्थात् आत्मा) उपस्थित है तब उसे छोड़कर दूर खोजने क्यों जाता है ? जिस कारण से उस परमात्मा को संसार में खोजता फिरा, वह तो तू अपने समीप ही पा सकता है। पा ASHIKARANAADAMIRROHO............................ BANAMSARDASABAIRISAM u naireasaanaarasAGANIGAMImandarmernama Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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