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________________ उपाय प्रवल अभिनंदन श्री आनन्द ॐ 571 डॉ. 乐 आचार्य प्रवर अभिनंदन अन्थ श्री आनन्द अन्थ धर्म और दर्शन ३३२ भले ही किसी भाव और भाषा में होती रही हो पर उनकी सहजानुभूति सार्वभौमिक रही है। जहाँ तक उसकी अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसे निश्चित ही साक्षात्कार कर्ता गूंगे के गुड़ की भांति पूर्णत: व्यक्त नहीं कर पाता । अपनी अभिव्यक्ति में सामर्थ्यं लाने के लिए यह तरह-तरह के साधन अवश्य खोजता है। उन साधनों में हम विशेष रूप से संकेतमयी और प्रतीकात्मक भाषा को ले सकते हैं । ये दोनों साधन साहित्य में भी मिल जाते हैं । यद्यपि रहस्यवाद जैसा शब्द प्राचीन भारतीय योगसाधनाओं में उपलब्ध नहीं होता, पर रहस्य शब्द का प्रयोग अथवा उसकी भूमिका का विनियोग वहाँ सदैव से होता रहा है । इसलिए भारतीय साहित्य के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं रहा । अतः प्राचीन भारतीय काव्य में पाश्चात्य रहस्यवाद की परिभाषा को शब्दशः खोजना उपयुक्त नहीं है उसका तद्रूप में पाया जाना यहाँ सम्भव भी नहीं जिस रहस्यवाद शब्द का प्रयोग १२वीं शताब्दी में प्रारम्भ में हुआ, उसकी भावधारा को उसके पूर्व उसी रूप में कैसे प्राप्त किया जा सकता है? और फिर यदि सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता हो, तब तो और भी कठिन हो जाता है । साधारण समानतायें मिलना दूसरी बात है और उन्हीं को आधार बना लेना दूसरी बात है। अतः पाश्चात्य रहस्यवाद को भारतीय अध्यात्मवाद में ढूंढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता । रहस्यभावना का वैभिन्य रहस्यभावना का सम्बन्ध चरम तत्त्व को प्राप्त करने से रहा है और चरम तत्त्व का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योगसाधना विशेष से रहना सम्भव नहीं इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की जिज्ञासा और उसका आचरित सम्प्रदाय विशेष महत्त्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके आचारों का वैगिन्य स्वभावतः विचारों और साधनाओं में विभिन्नता पैदा कर देता है । इसलिए साधारण तौर पर आज जो यह मान्यता है कि रहस्यवाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक-साधना में ही है. गलत है। प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी-नकिसी आप्तपुरुष में अद्वैत तत्त्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्य भावों को प्रतीक आदि माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है। यही कारण है कि आधुनिक रहस्यवाद की परिभाषा में भी मतवैभिन्न्य देखा जाता है । ज्ञान इसके बावजूद अधिकांश साधनाओं में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे हीनाधिक रूप से किसी एक की सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों। यह अस्वाभाविक भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक साधक का मूल लक्ष्य उस अदृष्ट शक्तिविशेष को आत्मसात करना है। उसकी प्राप्ति में दर्शन, और चारित्र की समन्वित त्रिवेणी धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यभावना की भूमिका में इन तीनों का संगम है। परम सत्य या परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके, क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जाना स्वाभाविक है । उनमें जैनदर्शन के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता। रहस्यभावना में वैभिरन्य छन्द से इसी भाव को पाये जाने का यही कारण है। संभवतः पदमावत में जायसी ने निम्न दर्शाया है "विधना के मारग हैं तेते । सरग नखत तन रोवां जेते ।। " इस वैभिन्य के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है--परम- सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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