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________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२७ rurn का द्योतक है, इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद कह सकते हैं । स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है और अनेकान्तवाद में अनेकान्त धर्म की मुख्यता है। स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है। अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैन-दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है और इस प्रयोग के पीछे जो हेतु रहा हुआ है, वह है वस्तु की अनेकान्तात्मकता । यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्त शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद शब्द से भी। वैसे देखा जाये तो स्याद्वाद शब्द का प्रयोग अधिक प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि आगमों में स्यात् शब्द का प्रयोग अधिक देखने में आता है। उसमें वस्तु की अनेक रूपता का प्रतिपादन करने के लिए 'सिय' (स्यात्) शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि अनेकान्तवाद स्याद्वाद का स्थूलतः पर्यायवाची शब्द कहा जाता है, फिर भी दोनों में वह अन्तर है कि स्याद्वाद भाषादोष से बचाता है और अनेकान्तवाद चिन्तन को निर्दोष घोषित करता है । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद पूर्वक स्याद्वाद होता है, क्योंकि निर्दुष्ट चिन्तन के बिना दोष-मुक्त (निर्दोष) भाषा का प्रयोग सम्यक् रीति से नहीं हो सकता । अनेकान्त वाच्य और स्याद्वाद वाचक है । स्याद्वाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है, जिसके माध्यम से दूसरे के दृष्टिकोण का समादर किया जाता है। स्याद्वाद-साहित्य का विकास : ऐतिहासिक दृष्टि यह पहले संकेत किया जा चुका है कि स्याद्वाद मूलक सात भंगों के नाम कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक ग्रन्थों में दिखलाई पड़ते हैं । वहाँ सात भंगों के केवल नाम एक गाथा में गिना दिये गये हैं । जान पड़ता है कि इस समय जैन आचार्य अपने सिद्धान्तों पर होने वाले प्रतिपक्षियों के तर्कप्रहार से सतर्क हो गये और इसीलिए स्याद्वाद को तार्किक रूप देकर जैन सिद्धान्तों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होने लगे थे । स्याद्वाद को प्रस्फुटित करने वाले जैन आचार्यों में ईसवी सन् की चौथी शताब्दी के अपूर्व प्रतिभाशाली, उच्चकोटि के दार्शनिक विद्वान सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र का नाम सबसे महत्त्वपूर्ण है। इन विद्वानों ने जैन तर्कशास्त्र पर सन्मतितर्क, न्यायावतार, युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा, आदि स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की हैं। सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अनेक प्रकार के दृष्टान्तों और नयों के सापेक्ष वर्णन से स्याद्वाद का अभूतपूर्व ढंग से प्रतिपादन किया है तथा अन्य दार्शनिकों की दृष्टियों को अनेकान्तदृष्टि के अंश प्रतिपादित कर अपनी सर्व-समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय दिया है। - इसके बाद ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी में मल्लवादी और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नामक विद्वानों का प्रादुर्भाव हुआ। मल्लवादी ने अनेकान्तवाद का प्रतिपादन करने के लिए नयचक्र आदि ग्रन्थों की रचना की और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थ बनाये । जिनभद्र ने प्रायः सिद्धसेन दिवाकर की शैली का ही अनुसरण किया है।। इन विद्वानों के पश्चात् ईसा की आठवीं-नौवीं शताब्दी में अकलंक और हरिभद्र के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने स्याद्वाद का नाना प्रकार से ऊहापोहात्मक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन कर उसको सांगोपांग एवं परिपूर्ण बनाया । इस समय प्रतिपक्षियों द्वारा अनेकान्तवाद पर अनेक प्रकार के प्रहार होने लगे थे। कोई अनेकान्त को संशय कहते, कोई केवल छल का रूपान्तर और इसमें विरोध, अनवस्था आदि दोषों का प्रतिपादन कर उसका खण्डन करते थे। ऐसे समय में अकलंक और हरिभद्र ने तत्वार्थ-राज-वार्तिक, सिद्धविनिश्चय, अनेकान्त नया ...... Orana,AMAJIRALANRA amadARANAAAAAAAAAAAAAENManahartAJALAIMINAAMGODADARPAN आचार्यप्रवरaआभआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दसन्यश्रीआनन्दमयन्य 22 Poweeveenwoman-Mancam Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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