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________________ AJAN AAAAAAMAJANAJANADAASARAMANANAGAaranaamaAAAAAAAAAAAAAAAAAA wwwwwwview ३२६ धर्म और दर्शन क्रमशः छह, तेरह, उन्नीस, बाईस और तेईस भंगों से उनकी अपेक्षा के कारणों के साथ उत्तर दिया गया । (विशद जानकारी के लिए भगवतीमूत्र--१२-१०-४६६ देखिए।) इस सूत्र के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विधि रूप और निषेध रूप इन दो विरोधी धर्मों को स्वीकार करने में ही स्याद्वाद के भंगों का उत्थान होता है। दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षाभेद से शेष भंगों की रचना होती है। सभी भंगों के लिए अपेक्षा कारण अवश्य होना चाहिए। इन्हीं अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंग-वाक्य में 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाता है । स्याद्वाद के भंगों में से प्रथम चार अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य -भंगों की सामग्री तो भगवान् महावीर के सामने थी। उन्हीं के आधार पर प्रथम चार भंगों की योजना भगवान ने की है। शेष भंगों की योजना भगवान की अपनी है, ऐसा प्रतीत होता है। आगमों में अवक्तव्य का तीसरा स्थान है। __ स्याद्वाद के भंगों में सभी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात भंगों की (न कम, न अधिक की) जैन-दार्शनिकों द्वारा की गई योजना का कारण यह है कि भगवतीसूत्र के ऊपर संकेत किये गये सूत्र में त्रिप्रदेशी और उससे अधिक प्रदेशी स्कन्धों के भंगों की संख्या में मूल सात भंग वे ही हैं जो जैन-दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंगसंख्या बताई गई है, वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं किन्तु एकवचन, बहुवचन के भेद की विवक्षा के कारण ही है। यदि वचनभेद-कृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाये तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं। अतएव वर्तमान में प्रचलित स्याद्वाद के सप्तभंग आगमों में कहे गये सप्तभंगों के ही रूप हैं। सकलादेश-विकलादेश की कल्पना भी आगमिक सप्तभंगों में विद्यमान है। आगमों के अनुसार प्रथम तीन सकलादेशी भंग हैं और शेष विकलादेशी हैं। इस प्रकार आगमों में स्याद्वाद और भंगों का रूप देखने में आता है, जिसको उत्तरवर्ती आचार्यों ने विविध रूपों से व्याख्यान करके जन-साधारण के लिए सरल बना दिया और चिन्तनमनन हेतु विद्वानों को सही दृष्टिकोण किया। स्याद्वाद और अनेकान्तवाद यह पहले संकेत कर चुके हैं कि जैनदर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है और उन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है । वस्तु में कथन किये जा सकने वाले वे सभी धर्म वस्तु के अन्दर विद्यमान हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन-उन धर्मों का पदार्थ पर आरोपण करता है। वस्तु अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है और अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ है कथंचित् । किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है और दूसरी दृष्टि से वस्तु का कथन दूसरे प्रकार से हो सकता है। यद्यपि वस्तु में वे सब धर्म हैं किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण अमुक धर्म की ओर है, इसलिए वस्तु एतद्रप ज्ञात हो रही है। वस्तु केवल इस रूप में ही नहीं है, वह अन्य रूप में भी है, इस सत्य को व्यक्त करने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। स्यात् शब्द के प्रयोग से ही हमारा वचन स्याद्वाद कहलाता है । 'स्यात्' पूर्वक जो 'वाद' कथन है, वह स्याद्वाद है। इसीलिए यह कहा जाता है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद है। स्याद्वाद को अनेकान्तवाद कहने का कारण यह है कि स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है । अनेकान्त अर्थ का कथन स्याद्वाद है। 'स्यात्' यह अव्यय अनेकान्त माता हा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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