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________________ क आधार्मप्र आचार्यप्रवअभिः श्रीआनन्दजन्यश्री नयन् २८४ धर्म और दर्शन में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा है। तत्त्वार्थसूत्र (अ० १, सूत्र १३) में मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, आभिनिबोध को एकार्थक कहा है। विशेषावश्यक भाष्य (३६६) में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा आदि शब्दों का प्रयोग किया है। नन्दीसूत्र में इन्हीं शब्दों का प्रयोग हुआ है ।१२ तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्य ज्ञान ये दो भेद बताये हैं । १३ सिद्धसेनगणी ने इंद्रियजन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ये तीन भेद किये हैं। जो ज्ञान केवल इंद्रियों से उत्पन्न होता है, वह इंद्रियजन्य है। जो ज्ञान केवल मन से उत्पन्न होता है, वह अनिन्द्रियजन्य ज्ञान है। जो ज्ञान इंद्रिय और मन इन दोनों के संयुक्त प्रयत्न से होता है, वह इंद्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान है ।१४ मतिज्ञान इंद्रिय और मन से होता है। इसलिए प्रश्न है कि इंद्रिय और मन क्या हैं ? इन्द्रिय प्राणी और अप्राणी में स्पष्ट भेदरेखा खींचने वाला चिह्न है-इंद्रिय । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में व अन्य आचार्यों ने इंद्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इंद्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है "इंदतीति इंद्रः' अर्थात् जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इंद्र है । यहाँ इंद्र शब्द का अर्थ-आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है, तथापि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के रहते हुए भी स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है। अतः उसको जानने में जो निमित्त होता है, वह इन्द्र का चिह्न इंद्रिय है। अथवा जो गूढ़ पदार्थ का ज्ञान कराता है, उसे लिंग कहते हैं । इसके अनुसार इंद्रिय शब्द का अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में कारण है उसे इंद्रिय कहते हैं। अथवा इंद्र शब्द नामकर्म का वाची है। अतः यह अर्थ हुआ कि नामकर्म की रचनाविशेष इंद्रिय है । सारांश यह है कि आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का आवरण होने से सीधा आत्मा से ज्ञान नहीं हो सकता। इसके लिए किसी माध्यम की आवश्यकता रहती है, वह माध्यम इंद्रिय है। जिसकी सहायता से ज्ञानलाभ हो सके वह इंद्रिय है। इंद्रियां पांच हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इनके विषय भी पांच हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द । इसीलिए इंद्रिय को प्रतिनियत अर्थग्राही कहा जाता है। जैसे स्पर्श-ग्राहक इंद्रिय रस-ग्राहक इंद्रिय गंध-ग्राहक इंद्रिय रूप---ग्राहक इंद्रिय शब्द-ग्राहक इंद्रिय श्रोत्र।१५ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, 卐 १२ ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा । सण्णा सती मती पण्णा सव्वं आभिणिवोहियं ।। नंदी. ७७, पुण्यविजय जी सम्पादित, पृ० २७ १३ तदेतन्मतिज्ञानं द्विविधं भवति । इंद्रियनिमित्तं अनिन्द्रियनिमित्तं च । तत्रेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनादीनाञ्च पञ्चाना स्पर्शादिषु पञ्चस्वेवं स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोधज्ञानं च। -तत्त्वार्थभाष्य १।१४ १४ तत्त्वार्थसूत्र पर टीका १।१४ १५ प्रमाणमीमांसा ११२।२११२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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