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________________ नयंवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर २७१ NEARN I जान जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। वस्तु के समस्त धर्मों का यथार्थ ज्ञान केवल उसी व्यक्ति विशेष को होता है जिसने कैवल्य ज्ञान को अधिगत कर लिया है पर दिक्भ्रम मानव समाज में इतना सामर्थ्य कहाँ है कि वह प्रत्येक वस्तु के समस्त धर्मों का यथार्थ ज्ञान आत्मसात् कर सके।' मनुष्य-ज्ञान की संकुचित सीमाओं के कारण ही मनुष्य वस्तु के एक या कुछ धर्मों का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही श्रेयस्कर समझता है अतः उसका ज्ञान आंशिक होता है। जैनदर्शन वस्तु के इस आंशिक या एकांशिक ज्ञान को "नय” नाम से अभिहित करता है। "नय सिद्धान्त २" जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त "अनेकान्तवाद' की आधारशिला है । यह समझना अनुचित होगा कि "नय सिद्धान्त' एकान्तवाद का प्रतिपादक है, अतः एकान्तवाद और अनेकान्तवाद में पूर्ण विरोध है। वस्तुस्थिति पर विचार करने से प्रत्येक ज्ञान का आंशिक या सापेक्ष होना ही न्यायसंगत प्रतीत होता है, पर वास्तविक ज्ञान इससे मिन्न है। इसी कारण से वस्तु के परिज्ञान के इच्छुक जन को प्रथम आंशिक (विकलादेश) ज्ञान पश्चात् पूर्ण (सकलादेश) ज्ञान होता है। वास्तविक ज्ञान का प्रथम सोपान आंशिक ज्ञान हो है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति गन्तव्य पर पहुंचने के लिए सोपान का आश्रय लेकर ही लक्ष्य की ओर अभिमुख होता है तथा अन्त में अपने लक्ष्य को अधिगत कर लेता है, उसी प्रकार आंशिक ज्ञान का आश्रय लेकर ही व्यक्ति वस्तु का पूर्णज्ञान क्रमशः प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आंशिक ज्ञान तथा पूर्ण ज्ञान में किसी भी प्रकार का विरोध परिलक्षित नहीं होता है अपितु ये दोनों ज्ञान एक दूसरे के पूरक ही सिद्ध होते हैं । स्थूलतया ज्ञान के तीन भेद किये जाते हैं-४ (१) दुर्नय (२) नय (३) प्रमाण १. दुर्नय-विद्यमान रहने वाली वस्तु के एक धर्म को यदि सदैव विद्यमान ही सिद्ध करने की चेष्टा की जाये तथा वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध किया जाये तो व्यक्ति की इस प्रवृत्ति को दुर्नय कहा जायेगा। २. नय-वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के केवल एक सत् धर्म की ही प्रस्तुति की जाये, वस्तु का यह आंशिक ज्ञान "नय" विचारधारा के अन्तर्गत आता है। ३. प्रमाण--"दुर्नय” तथा “नय' विचारधारा से भिन्न विचारधारा प्रमाण है । विद्यमान वस्तु के विषय में "कथंचित् यह सत् है" (स्यात्सत्) यह दृष्टिकोण वस्तु के ज्ञात तथा अज्ञात समस्त धर्मों में संकलित होने के कारण प्रमाण शब्द से अभिहित किया जाता है। वस्तु चूंकि अनन्तधर्मात्मक है अतः प्रत्येक धर्म-विशेष के निरूपण करने के कारण नयों की संख्या भी अनन्त है, परन्तु विवेक दृष्टि से उसके सामान्यतः दो भेद मान्य हैं-५ १. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायाथिक नय । BEER गया १ (अ) एकदेश विशिष्टो यो नयस्य विषयो मतः --न्यायावतार श्लोक २६ (ब) "नय" शब्द की निरुक्तिनीयते परिच्छिद्यते एक देश विशिष्टोऽर्थः अनेन इति नयः । -स्याद्वाद मंजरी पृ० १५६ (क) भारतीय दर्शन-बलदेव उपाध्याय पृ० १०० (ख) भारतीय दर्शन-डा. उमेश मिश्र पृ० १२७-२८ ३ "प्रमाणनयरधिगमः" तत्वार्थसूत्र ११६ ४ स्याद्वाद मंजरी श्लोक २८ ५ स्थानांग सूत्र स्था० ७, अनुयोगद्वार सूत्र rimadnaamavedasindainbursoami SURARAMMAR,AAMAAJAAAAAAAAJAL NY Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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