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________________ श्री आनंदऋषभदभवत अभिने ग्रन्थर फ्र प्र डा. कृपाशंकर व्यास एम. ए., पी-एच. डी. [ संस्कृत विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शाजापुर (म० प्र० ) | नयवाद सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर O भारत मूलतः दर्शन का देश है । विश्व के श्रेष्ठतम दर्शन इस देश ही में जन्मे और यहीं स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में पनपे । यहाँ का दार्शनिक चिन्तन आध्यात्मिक दृष्टि से मण्डित है । इसी दार्शनिक तत्व- चिन्तन ने ही भारतीय सत्यता और संस्कृति को समय की विडम्बना, काल की क्रूरता और इतिहास की निर्ममता को झेलने की अपूर्व शक्ति प्रदान की है । बाह्य आक्रमणों की श्रृंखला और आन्तरिक फूट ने यहाँ की सभ्यता, संस्कृति तथा विचारशक्ति को ध्वस्त करके, निश्शेष करने की दुरभिसन्धि की, परन्तु दार्शनिक तत्व-चिन्तन की असाधारणता तथा अपूर्वता ने अपनी अपराजेयता का परिचय देते हुए सांस्कृतिक मूल्यों और सभ्यता की उपलब्धियों को मिटने से बचाया है और भारतीय मानस को सदैव व्यापकता तथा उदारता की भूमि पर अव तरित करने की भूमिका का सोत्साह निर्वाह भी किया है। भारतीय दर्शन अनुभव और संघर्ष के आधार पर निर्मित दृष्टि का पर्याय होने के कारण न वह गिरिकन्दरा का दर्शन है और न एकांति कता तथा व्यक्ति-निष्ठता से अभिशप्त ही है। अपितु वह आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न होने के कारण संसार को रहने योग्य और स्वर्गतुल्य बनाने की छटपटाहट लिये हुए है । अतः भारतीय दर्शन को मात्र किताबी तथा बकवासी समझना बुद्धि-संकीर्णता को प्रदर्शित करना होगा । यहाँ का दर्शन जीवनोन्मुखी है, इसीलिए यह प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक चिन्तन के मध्य एक सेतु बन सका है। Jain Education International भारतीय दर्शनधारा मानव मस्तिष्क के अन्तहीन, शाश्वत, मूल्यवान् गवेषणात्मक चिन्तन का दृष्टान्त है, जो पुरातन होने पर भी सदा नवीन परिवेश में है । जीवन के मूल्य बदल जायें, देश-काल की परिस्थितियों में भिन्नता आ जाए किन्तु भारतीय चिन्तन-धारा का प्रवाह सार्वकालिक समस्याओं के हल हेतु सदा नित्य नये रूप तथा वेग में प्रस्तुत था, है, और रहेगा । यह है भारतीय चिन्तनधारा की सार्वकालिकता । विचारों के आदान-प्रदान की स्वतन्त्र प्रक्रिया ने भारतीय विचारधारा को अनेक रूप प्रदान किए हैं, जिनमें सह-अस्तित्व का आदर्श विद्यमान है। इसी प्रक्रिया ने ही एक विचारधारा के अन्तर्गत अनेक सूक्ष्म विभिन्न विचारधाराओं को भी जन्म दिया है, इसीलिए एक ही वस्तु के स्वरूप की अभिव्यक्ति में पर्याप्त भिन्नता लक्षित होती है। इस सहजगम्य भिन्नता को जैनदर्शन ने “नयवाद" से अभिहित कर इसे दार्शनिक रूप में प्रस्तुत कर नवीन सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय प्राप्त कर लिया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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