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________________ निश्चय और व्यवहार : किसका आश्रय लें? २५७ आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का अर्थ आचार के क्षेत्र में निश्चयनय का अर्थ जैन आचार दर्शन का नैतिक आदर्श मोक्ष है, अतएव जो आचार सीधे रूप में मोक्ष लक्षी है वह नैश्चयिक आचार है । अर्थात् समाचरण का वह पक्ष । जिसका सीधा सम्बन्ध हमारे बन्धन और मुक्ति से है, नैश्चयिक आचार है, वस्तुतः बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण समाचरण का बाह्य स्वरूप नहीं होता वरन् व्यक्ति की आभ्यन्तर मनोवृत्तियां ही होती हैं अतः वे चैतसिक तत्व या आभ्यन्तर मनोवृत्तियां जो हमारे बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण बनती हैं आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चय नय या परमार्थ दृष्टि के सीमा क्षेत्र में आती हैं। मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग, द्वेष और मोह की त्रिपुटी का सम्बन्ध हमारे नैश्चयिक आचार से है। संक्षेप में समाचरण का आन्तर् पक्ष आचारलक्षी निश्चयनय का सीमा क्षेत्र है। नैतिक निर्णयों की वह दृष्टि जो बाह्य समाचारण या क्रियाकलापों से निरपेक्ष मात्र कर्ता के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर शुभाशुभता विचार करती है, निश्चय दृष्टि है।' आचारदर्शन के क्षेत्र में भी नैश्चयिक आचार सदैव ही एक होता है। नैश्चयिक दृष्टि से जो शुभ है वह सदैव ही शुभ है, जो अशुभ है वह सदैव अशुभ है । देश, काल एवं व्यक्तिक भिन्नताओं में भी उसमें विभिन्नताएँ नहीं होती हैं। वैचारिक या मनोजन्य अध्यवसायों का शुभत्व और अशुभत्व देश-कालगत भेदों से नहीं बदलता, उसमें अपवाद के लिये कोई स्थान नहीं होता है। व्यवहारिक नैतिकता में या समाचरण के बाह्य भेदों में भी उसकी एकरूपता बनी रह सकती है। पं० सुखलालजी के शब्दों में नैश्चयिक आचार की (एक ही) भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यवहारिक आचारों में से गुजरता है। यही नहीं, इसके विपरीत समाचरण की बाह्य एकरूपता में भी नैश्चयिक दृष्टि आचार की भिन्नता हो सकती है। वस्तुतः आचार दर्शन के क्षेत्र में नैश्चयिक आचार वह केन्द्र है जिसके आधार से व्यवहारिक आचार के वृत्त बनते हैं। एक केन्द्र से खीचे गये अनेक वृत्त बाह्य रूप से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी अपने केन्द्र की दृष्टि से एक ही रूप माने जाते हैं, उनमें परिधिगत विभिन्नता होते हुए भी केन्द्र गत एकता होती है । जैनदृष्टि के अनुसार निश्चय आचार सारे बाह्य आचरण का केन्द्र होता है, सार होता है। आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार के सही मूल्यांकन के लिये हम एक दूसरी दृष्टि से भी विचार कर सकते हैं। आचार दर्शन में निश्चय दृष्टि या परमार्थ दृष्टि नैतिक समाचरण का मूल्यांकन उसके आन्तर् पक्ष, प्रयोजन या उसकी लक्ष्योन्मुखता के आधार पर करती है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक वैयक्तिक दृष्टि से ही जो व्यक्ति के समाचरण का मूल्यांकन उसके लक्ष्य की दृष्टि से करती है । जैनदर्शन के अनुसार नैश्चयिक नैतिकता नैतिक समाचरण के संकल्पात्मक पक्ष का अध्ययन करती है लेकिन नैतिकता मात्र संकल्प ही नहीं है। नैतिक जीवन के लिए संकल्प अत्यन्त आवश्यक, अनिवार्य तत्व है लेकिन मात्र ऐसा संकल्प जिसमें समाचरण (Performance) का प्रयास न हो, सच्चा संकल्प नहीं होता। इसलिए नैतिक जीवन के लिए संकल्प को मात्र संकल्प नहीं रहना चाहिए वरन् कार्य रूप में परिणत भी होना चाहिए और यही संकल्प की १ बाह्य निरपेक्षपरिणामः (जैन विचारणा में परिणाम शब्द मन-दशाओं का सूचक होता है) --अभिधानराजेन्द्र. खण्ड ४, पृ०-२०५६ २ दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ०-४६६ ३ बाह्यस्य आभ्यन्तरत्वं-अभिधान राजेन्द्र. खण्ड ४ पृ०-२०५६ nasannamaanBRAJARURAAJKARINNAMAIRinandanaasarawadAAJAMALALAINIAAAAAAJALANKARAMBAKAARAAAAAAAAAABADALAIM आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवर आभ श्रीआनन्दथश्रीआनन्दन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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