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________________ AnusalmanianAAAAAM ها است اما باید نقف مع علمنخفا میه مان فرهنهنهنهرها هے आचार्यप्रव3 आचार्य श्रीआनन्द प्राआनन्द Cryyyrewarivarvinvirmiraram २५६ धर्म और दर्शन AC ही सूचित करते हैं। जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि में तो बन्धन और मुक्ति आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ऐसी मौलिक धारणाएं हैं जिसे वह स्वीकार करके ही आगे बढ़ती है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द एवं अन्य जैनाचार्यों ने निश्चय में दो भेद स्वीकार किए। आचार्य कुन्दकुन्द तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले निश्चयनय (परमार्थदृष्टि) को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि को अशुद्ध निश्चयनय कहते हैं। अन्य आचार्यों ने निश्चयनय के द्रव्याथिक निश्चयनय और पर्यायाथिक निश्चयनय ऐसे दो विभाग किये हैं। इसमें द्रव्याथिक निश्चयनय तत्वदर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है जबकि पर्यायाथिक निश्चयनय आचार दर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है। द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि से नैतिकता का विचार इसी तथ्य को जैन विचारणा के अनुसार एक दूसरी प्रकार से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो दृष्टिकोण या नय भी स्वीकार किए गए हैं। सांख्यदर्शन परिणामवाद को मानता है लेकिन वह केवल प्रकृति की दृष्टि से जबकि जैनदर्शन जड़ और चेतन उभय परम तत्वों की दृष्टि से परिणामवाद मानता है। सत् का एक पक्ष वह है जिसमें वह प्रतिक्षण बदलता रहता है जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इन परिवर्तनों के पीछे है। जैनदर्शन उस अपरिवर्तनशील शाश्वत पक्ष को अपनी पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार कर लेता है लेकिन नैतिकता की सारी सम्भावना एवं सारी विवेचना तो इस परिवर्तनशील पक्ष के लिए है-- नैतिकता एक गत्यात्मकता है, एक प्रक्रिया है, एक होना है (Becoming) जो परिवर्तन की दशा में ही सम्भव है। उस अपरिवर्तनीय पक्ष की दृष्टि से जो मात्र (Being) है, कोई नैतिक विचारणा सम्भव ही नहीं। जैन विचारणा यह भी नहीं कहती है कि हमारा नैतिक आदर्श परिवर्तनशीलता (becoming) से अपरिवर्तनशीलता (being) की अवस्था को प्राप्त करना है क्यों कि यदि सत् स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यगुण युक्त है तो फिर मोक्ष अवस्था में यह गुण रहेंगे । जैन विचारणा मोक्षावस्था में आत्मा का परिणामीपन स्वीकार करती है। जैन विचारणा के अनुसार परिवर्तन या पर्याय ( Mode) दो प्रकार के होते हैं.----एक स्वभाव पर्याय या सरूप-परिवर्तन (Homogenous changes) और दूसरे विभावपर्याय या विरूप-परिवर्तन (Hetrogenous changes) होते हैं। जैन नैतिकता का आदर्श मात्र आत्मा को विभाव पर्याय की अवस्था से स्वभाव पर्याय अवस्था में लाना है। इस प्रकार जैन नैतिकता सत् के द्रव्याथिक पक्ष को अपनी विवेचना का विषय न बनाकर सत् के पर्यायाथिक पक्ष को हो अपनी विवेचना का विषय बनाती है। जिसमें स्वभाव पर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है। स्वभावपर्याय या सरूप-परिवर्तन वे अवस्थाएं हैं जो वस्तु तत्व के निज गुणों के कारण होते हैं एवं अन्य तत्व से निरपेक्ष होते हैं। इसके विपरीत अन्य तत्व से सापेक्ष परिवर्तन-अवस्थाएं विभावपर्याय होती हैं। अतः नैतिकता के प्रत्यय की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि आत्मा का स्व स्वभाव दशा में रहना यह नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप है। इसे ही आचारलक्षी निश्चयनय कहा जा सकता है क्योंकि जैनदृष्टि से सारे नैतिक समाचरण का सार या साध्य यही है, जिसे किसी अन्य का साधन नहीं माना जा सकता। यही स्वलक्ष्य मूल्य (end in itself) है । शेष सारा समाचरण इसी के लिये है, अतः साधन रूप है, सापेक्ष है और साधन रूप होने के कारण मात्र व्यवहारिक नैतिकता है। १ अण्ण निरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ। (अन्य निरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः) -नियमसार २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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