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________________ W.AawanAmA- AnnANAMIRMALAIKAMALNAJANANAMALAIAiMAKENARAACAMALA आपाप्रवाह आनापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दा ग्रन्थश्राआनन्द-ग्रन्थ २५० धर्म और दर्शन Y NEEK राय विचारकों ने नयों का एक द्विविध वर्गीकरण प्रस्तुत किया था। जिसमें अन्य सभी वर्गीकरण भी अन्तर्भूत है।' जैनागम भगवती सूत्र में व्यवहार और निश्चय दृष्टि का प्रतिपादन बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है । गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं, भन्ते ! फाणित-प्रवाही गुड़ में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ? महावीर इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि गौतम ! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ। व्यवहारिक नय (लोकदृष्टि) की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है लेकिन निश्चय नय (वास्तविक दृष्टि) की अपेक्षा से उसमें पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं । इस प्रकार वहाँ अनेक विषयों को लेकर उनका निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि से विश्लेषण किया गया है । वस्तुतः यह निश्चय एवं व्यवहार दृष्टि का विश्लेषण हमें यही बताता है कि सत् (Reality) न उतना ही है जितना वह हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्रतीत होता है और न उतना ही जितना कि बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है। जैनाचार्यों ने सत्य को समझने की इन दोनों विधियों का प्रयोग न केवल तत्वज्ञान के क्षेत्र में ही किया वरन् आचार दर्शन की अनेक गुत्थियों के सुलझाने में भी इनका प्रयोग किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आगमोक्त इन दो नयों (दृष्टिकोणों) का प्रयोग आत्मा के बन्धन-मोक्ष, कर्तृत्वअकर्तृत्व तथा नैतिक जीवन-प्रणाली या ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से किया है और इनके आधार पर तत्वज्ञान तथा आचारदर्शन सम्बन्धी अनेक विवादास्पद प्रश्नों का समुचित निराकरण भी किया है। यही नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने निश्चय दृष्टि को भी अशुद्ध निश्चय दृष्टि और शुद्ध निश्चयदृष्टि ऐसे दो रूपों में विभाजित किया है और इस प्रकार उनके अनुसार एक व्यवहारनय दूसरा अशुद्ध निश्चयनय, तीसरा शुद्ध निश्चयनय ऐसे तीन विभाग बनाये गये । इस प्रकार सत् के निरूपण की इन दो दृष्टियों को दर्शन जगत में प्रस्तुत करने और उनके आधार पर दार्शनिक समस्याओं के निराकरण करने का प्रथम श्रेय जैनविचारणा को मिलना चाहिए। फिर भी यह जान लेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनदर्शन और वेदान्तदर्शन में सत् के स्वरूप को समझने के लिए इन शैलियों का खुलकर प्रयोग हुआ है । अजैन दर्शनों में सर्वप्रथम बौद्ध आगमों में हम दो दृष्टियों का वर्णन पाते हैं, जहाँ उन्हें नीतार्थ और नेयार्थ कहा गया है। भगवान बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा है-भिक्षओ ! ये दो तथागत पर मिथ्यारोप करते हैं, कौन से दो ? जो नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) को नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) करके प्रगट करता है और नीतार्थ-सूत्र (परमार्थभाषा) को नेय्यार्थ-सूत्र (व्यवहारभाषा) करके प्रगट करता है। २ बौद्ध दर्शन की दो प्रमुख शाखाओं--विज्ञानवाद और शून्यवाद–में भी तथता या सत् के स्वरूप को समझाने के लिए दृष्टिकोणों की इन शैलियों का उपयोग हुआ है। बौद्ध विज्ञानवाद तीन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करता है (१) परिकल्पित (२) परतन्त्रत (३) परिनिष्पन्न । शून्यवाद में नागार्जुन दो दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करते हैं-१ लोकसंवृति सत्य और २ परमार्थ सत्य । चन्द्रकीर्ति ने लोकसंवृति को भी मिथ्यासंवृति और तथ्यसंवृति इन दो भागों में विभाजित १ निश्चयव्यवहारयोः सर्वनयान्तर्भावः । -वही, खण्ड ४ पृ० १८५३ । २ अंगुत्तरनिकाय, दूसरा निपात (हिन्दी अनुवाद प्रथम भाग, पृ० ६२) ३ द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृति सत्यंच सत्यं च परमार्थतः ।। -माध्यमिक वृत्ति ४६२, बोधिचर्या ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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