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________________ निश्चय और व्यवहार किसका आश्रय लें ? अनेक तत्ववाद में उनके पारस्परिक सम्बन्धों की समस्या का ठीक निदान नहीं मिलता । यही कारण था कि दार्शनिकों को अपनी व्याख्याओं के लिए सत्य के सम्बन्ध में दृष्टिकोणों (नयों) का अवलम्बन लेना ही पड़ा और जिन दार्शनिकों ने दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेने से इन्कार किया वे एकांगी बनकर रह गये । इन्हें इन्द्रियजन्य संवेदनात्मक ज्ञान और तार्किक चिन्तनात्मक ज्ञान में से किसी एक को अयथार्थ कहकर त्यागना पड़ा। चार्वाक या भौतिकवादियों ने वस्तुतत्व या सत् के इन्द्रियप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ समझा और बुद्धि की विधाओं या विकल्पों से प्रदत्त ज्ञान को जो इन्द्रियानुभूति पर खरा नहीं उतरता था, अयथार्थ कहा। दूसरी ओर कुछ विचारकों ने उस इन्द्रियगम्य ज्ञान को अयथार्थ कहा जो कि बौद्धिक विश्लेषण में खरा नहीं उतरता है और बुद्धिप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ माना। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं था । सम्भवत: इस दार्शनिक समस्या के निराकरण का प्रथम प्रयास जैन और बौद्ध आगमों में परिलक्षित होता है । महावीर ने कहा कि न तो इन्द्रियजन्य अनुभूति ही असत्य है और न बुद्धि प्रदत्त ज्ञान ही असत्य है । एक में वस्तुतत्व या सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में वह हमारी इन्द्रियों को परिलक्षित होता है अथवा जिस रूप में हमारी इन्द्रियां उसे ग्रहण कर पाती हैं, दूसरे में वस्तुतत्व या सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में वह है । जैनागमों के अनुसार पहली लोकदृष्टि या व्यवहार नय है और दूसरी परमार्थ दृष्टि या निश्चयनय है । लोकदृष्टि या व्यावहारिक दृष्टि स्थूल तत्वग्राही है, वह हमें यह बताती है कि तत्व या सत्ता को जनसाधारण किस रूप में समझता है। जबकि परमार्थ दृष्टि या निश्चयनय सूक्ष्म तत्वग्राही है, वह हमें यह बताती है कि सत्ता का बुद्धिप्रदत्त वास्तविक स्वरूप क्या हैं ? जैसे पृथ्वी सपाट है या स्थिर है यह व्यवहारनय या लोकदृष्टि है, क्योंकि वह हमें इस रूप में प्रतीत होती है या हमारा व्यवहार ऐसा मानकर ही चलता रहता है । जबकि पृथ्वी गोल है या चलती है यह निश्चय दृष्टि है अर्थात् वह इस रूप में है। दोनों में से अयथार्थ तो किसी को कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि एक इन्द्रिय प्रतीती के रूप में सत्य है या इन्द्रियगम्य सत्य है और दूसरा बुद्धिनिष्पन्न सत्य है या बुद्धिगम्य सत्य है । यह तो सत्ता ( Reality) के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं और इनमें से अयथार्थ या मिथ्या कोई भी नहीं है । दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में सत्य हैं । यद्यपि दोनों में कोई भी एक, स्वतन्त्र रूप में वस्तु तत्व या सत्ता का पूर्ण स्वरूप प्रगट नहीं करती हैं। वस्तुतः सत्ता या तत्व ( Reality ) अपने आप में ही एक पूर्णता है, अनन्तता है और अनन्त के अनन्त पक्षों का प्रगटन वाणी और भाषा के माध्यम से सम्भव नहीं हो सकता । इन्द्रियानुभूति, भाषा और वाणी सभी अनन्त के एकांश का ग्रहण कर पाती है। वही एकांश का बोध नय कहलाता है । उसके अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है वे सभी नय ( Standpoints) कहे जाते हैं और इसीलिए जैन विचारकों ने कह दिया था कि जितने वचन के प्रकार अथवा भाषा के प्रारूप ( कथन के ढंग ) हो सकते उतने ही नय के भेद हैं। लेकिन फिर भी जैन १ लोकव्यवहाराऽभ्युपगमपरा नया व्यवहारनय उच्यते । व्यवहृयते इति व्यवहारः । - अभिधान राजेन्द्र पृ० - अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४, पृ० २ निश्चिनोति तत्वमिति निश्चयः । ३ अनन्तधर्माऽध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्यर्थः । ४ जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति नय वाया । आचार्य प्रवस Jain Education International २४६ - अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४ पृ० १८५३ । — सन्मति तर्क १३-४७ wwwner १८९२ । १८६२ । आचार्य प्रवास अभि For Private & Personal Use Only 310 www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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