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________________ आचार्यप्रवभिग माननग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ २२६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व करते हैं, उनके पिता वसुदेव की नहीं। गुणी व्यक्ति चाहे अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, अपने गुणों के कारण ही प्रत्येक स्थान पर सम्मान प्राप्त करता है। कहा भी है 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः ।' पूजा का स्थान केवल गुण ही हैं, उम्र अथवा लिंग नहीं। प्राणी अपने गुणों से महान् बनते हैं, वैभव या ऊँची-ऊँची पदवियाँ प्राप्त कर कुर्सीधारी बन जाने से नहीं। चाणक्यनीति में कहा भी है गुणः सत्तमतां यान्ति नीचरासनसंस्थितः । प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुडायते ॥ गुणों से ही मनुष्य महान् होता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के ऊँचे शिखर पर बैठने से भी कौआ गरुड़ नहीं हो सकता है। कहने का अभिप्राय यही है कि महत्त्व केवल गुणों का होता है, लिंग या वय का नहीं। गुणाभिमानी न बनो बंधुओ ! अभी आपको गुणों का महत्त्व बतलाया है और यह भी बताया है कि गुणों की सर्वत्र पूजा होती है। साथ ही यह भी बताना आवश्यक है कि मनुष्य गुणों के साथ-ही-साथ कहीं गर्व का भी संचय न कर ले । अन्यथा उसके समस्त गुणों पर पानी फिर जायेगा। इसीलिए कवीर ने कहा है कबीरा गर्व न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । अबहु नाव समुद्र में को जाने का होय ॥ कितनी सच्ची शिक्षा दी है कि किसी अन्य के अवगुणों को देखकर कभी उसका उपहास मत करो तथा अपने गुणों का गर्व मत करो। अभी तो स्वयं तुम्हारी जीवननौका भी संसार-सागर के मध्य में ही है। कौन जानता है कि पार उतरोगे या नहीं? वस्तुतः सच्चा गुणवान वही है जो अपने आप में सदा कमियां देखता है। गुणवानों का सच्चा लक्षण यही है कि वे अपने आपमें उच्चता नहीं, वरन् लघुता महसूस करते हैं और उनकी लघुता की भावना ही उनकी महता की प्रतीक है। जो भव्य प्राणी इस प्रकार अपनी अहंकार रूप दुर्बलता का त्याग कर देते हैं, वे ही इस लोक में प्रशंसा और परलोक में कल्याण के भाजन बनते हैं। इसलिए हमें अपनी बुद्धि और विवेक को जागृत करते हुए अनन्त पुण्यों के उदय से प्राप्त होने वाले इस मनुष्य जन्म को सार्थक करने का प्रयत्न करना चाहिए और यह तभी हो सकेगा जब कि हम गुणानुरागी बनेंगे। __अगर हम में प्रत्येक प्राणी के छोटे-से-छोटे गुण को भी ग्रहण कर लेने की लालसा बनी रहेगी तो एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा कि संसार के समस्त सद्गुण हमारे हृदय में निवास करने को आतुर वनेंगे और उनके माध्यम से मोक्षपथ की समस्त कठिनाइयों को पार कर सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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