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________________ गुणपूजा करिए २२५ इसीलिए श्लोक में आगे कहा है-- सच्चे गुणी और गणानुरागी मनुष्य मिलना बड़ा दुर्लभ है। ये दोनों चीजें एक ही स्थान पर नहीं मिल सकती हैं । व्यक्ति स्वयं गुणवान हो तथा दूसरों के गुणों को देखकर आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव करता हो तो उससे बढ़कर अच्छाई और क्या हो सकती है ? कवि-कुल भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज अपने एक कवित्त के द्वारा प्राणी को। सदुपदेश देते हैं कि तू औरों की निन्दा मत कर, औरों के दोष मत देख । अगर देखना ही है तो अपने स्वयं के दोष देव, जिससे आत्मशुद्धि हो सके । काव्य इस प्रकार है छिद्र पर देख निन्दा करे केम छोड़ के छिद्र सुगुण लहीजे । देख बबूल को कांटा ग्रहे मत छाया ते शीतल होय सहीजे ॥ तुच्छ असार अहार है धेनु को क्षीर विगय तामें सार कहीजे । तिलोक कहत स्वछिद्र को टालत काहे को अन्य का छिद्र गहीजे ॥ कहा गया है-'हे प्राणी ! तू दूसरों का छिद्रान्वेषण क्यों करता है ? परदोष-दर्शन करके उनकी निन्दा करने से तुझे कौन-सा लाभ होने वाला है ? कोई नहीं, अतः दूसरों के दोष देखना छोड़कर उनमें जो गुण हैं, केवल उन्हें ही ग्रहण करना सीख । बबूल का पेड़ तेरे समक्ष है तो क्या यह आवश्यक है कि तू उसमें से काँटे ग्रहण करे ही ? नहीं, काँटों को छूने की आवश्यकता नहीं है । असह्य धूप है और पास में अन्य कोई वृक्ष नहीं है तो तू दो घड़ी बबूल की छाया में बैठकर विश्राम कर । शूल वृक्ष पर हैं तो रहने दे, छाया में तो शूल नहीं हैं, बबूल के शूल रूपी छिद्रों को देखने से तुझे क्या लाभ है ? और न देखे तो कौन-सी हानि है? फिर व्यर्थ का कार्य करना ही किसलिए? उसे न करना ही अच्छा है । वह तो अज्ञानी व्यक्तियों का कार्य है कि दोष पराया देखिके चला हसत हसंत । अपने याद न आवही जिनका आदि न अंत ॥ इसलिए कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज का कथन है कि तू दूसरों के अवगुणों को देख-देख कर अपने अवगुणों में वृद्धि मत कर । और अन्त में कहते हैं-अरे अज्ञानी ! अगर तुझे दोष ही देखने हैं तो औरों के क्यों देखता है। अपने ही क्यों नहीं देखता । औरों के दोष देखने से आखिर तुझे क्या लाभ होगा? अपने स्वयं के देख लेगा तो कुछ आत्मसुधार हो सकेगा। इसलिए उचित यही कि है अपने आप में झाँक, आत्मनिरीक्षण कर । जिन्होंने ऐसा किया है, उनका कहना भी यही है-- बुरा जो देखन मैं चला बुरा न दीखा कोय । जो धर सोधा आपना मो सम बुरा न कोय । वस्तुतः सच्चे महापुरुष अपना ही दोष दर्शन करते हैं। गुणों का महत्त्व गुण अपने आप में सम्पूर्ण होते हैं। उनमें कोई दोष नहीं होता जिसे हटाने की आवश्यकता होती हो तथा कोई अधूरापन नहीं होता जिसे पूरा करने की जरूरत पड़ती हो। इसलिए उन्हें किसी की सिफारिश की भी आवश्यकता नहीं होती है, वे अपने आप ही सब स्थानों पर आदर प्राप्त कर लेते हैं। कहा भी है गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः । वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न ते जनाः ॥ गुणों का ही सर्वत्र समान होता है, गुणी के वंश का नहीं। लोग वासुदेव (कृष्ण) की ही वंदना आपावट आनापार्यप्रवर आ श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द बासुदेव नमस्यन्ति मसुदेव न ते जनाः ॥ NiumauntrintammananAaameraMUNDATADORIA + A Novemarwareneurnawani meename Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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