SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुख का साधन - धर्म २१५ धर्म का आश्रय लेते हैं, वे स्वयं भी संसार से विरक्त होकर आत्मसाधना करते हैं और संसार में गृद्ध अन्य प्राणियों को भी उद्बोध न देते हुए कहते हैं ढील करे मत तू छिन की करले झट सुकृत लाभ कमाई, बैठ एकान्त करी मन ठाम जपो जिनराज सुध्यान लगाई । दान, दया, तप, संजम मारग श्रीगुरु सेव करो चित्त लाई, 'अमृत' चित्त अलेप रखो नरदेह धरे को यही फल भाई ॥ कवि का कथन कितना सुन्दर और यथार्थ है । प्रत्येक मुमुक्ष को उससे शिक्षा लेकर धर्म को उसके सच्चे रूप में अपनाना चाहिये तथा अपनी दृढ़ साधना से ऐसा पुरुषार्थ जगाना चाहिये कि समस्त कर्मों के दृढ़बंधन भी तड़ातड़ टूट जायें । अस्तु ! जीवन अमूल्य और दुर्लभ है। अज्ञान और प्रमाद में पड़े रह कर इसकी उपेक्षा करना इसे मिट्टी के मोल गँवा देने के समान है । अतः प्रत्येक आत्मकल्याण के इच्छुक मानव को मंगलमय धर्म का आचार दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिये । धर्म की अमरज्योति ही इस संसाररूपी अरण्य में भटकते हुए जीव को सही मार्ग बता सकती है तथा उसे अनन्त सुख और शाश्वत शांति रूपी अमरपथ की प्राप्ति करा सकती है । धर्म की शरण में जाने पर ही आत्मा का कल्याण और मंगल हो सकेगा । आनन्द-वचनामृत [ भगवान से पूछा गया है, मोक्ष का मार्ग क्या है ? उत्तर में बताया गया है गुरुजनों की सेवा, अज्ञानीजनों से दूर रहना, स्वाध्याय में लीन रहना, एकान्तवास करना, सूत्रार्थ का चिन्तन करना । इन पांच कारणों से मोक्षमार्ग की आराधना की जाती है । मोक्षमार्ग पर सही गति करने के लिए शास्त्र की आज्ञा पर ध्यान देना परम आवश्यक है । जैसे रेलगाड़ी कुशलक्षेम पूर्वक अपने पथपर तभी चल सकती है जब वह सिग्नल को बराबर ध्यान में रखे, अगर सिग्नल का ध्यान न रखकर रेलगाड़ी चले तो कहीं भी टकराकर चकनाचूर हो सकती है। इसी प्रकार साधक को अपने जीवनपथ में शास्त्र आज्ञा का सिग्नल की भांति सदा ध्यान रखना चाहिए । Jain Education International आचार्य प्र श्रीआनन्द For Private & Personal Use Only डॉ CA अभिनन्दन www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy