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________________ AALAAJAAADALANASA' आचार्यप्रवरआन आचार्यप्रवर श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्द अभि mmernamammiyan २१४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नहीं वरन् प्राणिमात्र की सुख-समृद्धि और उसके अभ्युदय के लिये है। धर्म संसार के समस्त जीवों के लिये वरदान रूप बनकर इस भू-मंडल पर अवतरित हुआ है। धर्म ही मानव में मानवता की प्रतिष्ठा करता है तथा दानवीय वृत्ति को निकालता है। इसकी प्रेरणा के अभाव में मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता और सिद्धि हासिल नहीं कर सकता। इसलिये आवश्यक है कि वह धर्म को परखे तथा उसकी रक्षा करे। धर्म को परिभाषा विश्व के अनेक विचारकों ने धर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की हैं तथा अब तक धर्म की हजारों परिभाषाएं दी जा चुकी हैं, किन्तु अगर मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझना है तो उसे श्री कुन्दकुन्दाचार्य की एक छोटी-सी परिभाषा पर ध्यान देना चाहिये। उन्होंने कहा है-- 'वत्थुसहावो धम्मो ।' वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का स्वभाव उष्णता, शक्कर का स्वभाव मीठापन और नमक का स्वभाव खारापन है, उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है । सत्-चित् आनन्दमय है, आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में रहे तो निश्चय ही कहा जा सकता है वह धर्ममय है। अभी मैंने अहिंसा, संयम और तप के विषय में काफी बताया है। ये तीनों आत्मा के स्वाभाविक और निजी गुण हैं। इसीलिये शास्त्रकारों ने इन्हें धर्म कहा है। गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह भलीभांति माना जा सकता है कि आत्मा को अपने सहज स्वभाव की प्राप्ति केवल अहिंसा, संयम और तप में स्थित रहकर ही हो सकती है। अहिंसा, संयम और तप रूप यह त्रिवेणी ही दूसरे शब्दों में मंगलमय धर्म कहलाती है, जिसकी आराधना करके किसी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति अपनी आत्मा को कर्ममुक्त कर परमात्मा बन सकता है। लेकिन जो व्यक्ति अपने जीवन में कर्म को स्थान नहीं देते तथा उसकी उपेक्षा करते हैं, उनके लिये समझना चाहिये कि वे अपने अमूल्य मानवभव को निरर्थक कर रहे हैं। मानवजीवन की दुर्लभता संसार का कौनसा व्यक्ति नहीं जानता कि मानव-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है और इसके अमूल्य क्षण एक-एक कर व्यतीत हो जायेंगे। कोई भी मनुष्य चाहे वह विद्वान हो या मूर्ख, धनवान हो या निर्धन, वीर हो या कायर अथवा बलवान हो या निर्बल, सदाकाल के लिये जीवित नहीं रह सकता, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिये कि वह अपने इस लघु और नश्वर जीवन का सदुपयोग कैसे करें? अगर व्यक्ति समझदार और विवेकवान है तो वह सहज ही जान लेता है कि जीवन का सदुपयोग बड़ा परिवार होने और उसके ममत्व में गृद्ध होने से नहीं होता, धन का अम्बार लगाकर भोगविलास के अगणित साधन जुटा लेने से नहीं होता अथवा झूठी प्रतिष्ठा और कीति बढ़ा लेने से भी नहीं होता है। सांसारिक भोगों का कहीं अन्त नहीं है । विचार करने की बात है कि क्या उन्हें भोगने से तृप्ति होती है ? कभी नहीं। जिस प्रकार अग्नि में निरंतर आहुति डालते रहने पर भी वह शान्त नहीं होती उलटे भड़कती जाती है, उसी प्रकार अनन्त भोग-सामग्री मिलने पर भी मनुष्य की भोगलालसा सदा अतृप्त ही बनी रहती है । धन की लालसा अथवा स्त्री, पुत्र, भाई, पिता आदि सांसारिक संबन्धियों के प्रति मोह मनुष्य को अंधा बना देता है और उसकी संसार से मुक्त होने की कामना पर पानी फेर देता है, किन्तु अगर मानव को इस संसारचक्र से छूटना है तो उसे अपना विवेक जगाना होगा। संसार के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति का त्याग करना होगा। उसे सोचना ही पड़ेगा कि यह जीवन धर्मसाधना के लिये है, न कि संसार में लिप्त रहकर आत्मनाश के लिये। संसार में आसक्त रहने से आत्मा का कल्याण होना कभी भी सम्भव नहीं है । इसीलिये महापुरुष और संतजन आंतरिक और बाह्य परिग्रह का त्याग कर ६. PLEADER या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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