SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावना भवनाशिनी १६७ ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि अज्ञानी की दृष्टि भूत और भविष्य से हटकर केवल वर्तमान तक ही सीमित रहती है, वह भविष्य की कुछ भी चिन्ता नहीं करता। इसीलिए वह अपने भविष्य को सुधारने की ओर ध्यान नहीं देता । अतः मन की तरंगों पर बहता रहता है, इन्द्रियों के संकेतों पर नाचता रहता है और विषय-वासनाओं के फंदे में फंसा रहता है। इतना ही नहीं, अपनी घोर अज्ञानता के कारण वह अपने अज्ञान ही को नहीं समझ पाता। फिर उसे दूर करने की चेष्टा कैसे कर सकता है ? ज्ञान की महिमा इसीलिए भक्त कामना करता है-'प्रभो, मुझे अज्ञान रूपी अन्धकार से बचाकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चलो।' भक्त ऐसी कामना क्यों करता है ? क्यों वह ज्ञान के प्रकाश की ओर जाना चाहता है ? इसलिए कि _ 'अज्ञानप्रभवं सर्व ज्ञानेन प्रविलीयते ।' अज्ञान के प्रभाव से उत्पन्न सभी प्रकार का मायाजाल अथवा कर्मों का खेल ज्ञान की दिव्य शक्ति से नष्ट हो जाता है। वस्तुतः ज्ञान का प्रकाश फैलते ही भौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार का अन्धकार लोप हो जाता है तथा मानव आत्मा और परमात्मा रूप तत्वों का चिन्तन, मनन एवं अध्ययन करते हुए अपने मन के विकारों का और मोह का नाश करने के प्रयत्न में जुट जाता है। ज्ञान की प्राप्ति होते ही इस संसार को सब कुछ समझने वाले प्राणी में कितना परिवर्तन आ जाता है, यह पं० अमीऋषि जी महाराज ने अपने निम्नलिखित एक पद्य द्वारा बतलाया है गिने वनितादिक बंधन से पुनिः कामविकार लखे जिमि नाग। अनित्य अपावन देह लखे, कबहूँ नहीं नेक भरे अनुराग ।। गिने दुखदायक सुख सभी धनधाम ममत्व हरे करि त्याग । रहे निर्लप सरोज यथा नर जान अमीरिख सत्य विराग ।। बन्धुओ ! ज्ञान का यही सार है कि उसकी सहायता से आत्मा अपने निजस्वरूप को पहचानने तथा उसकी मुक्ति के लिए सम्यक् रूप से साधना करे । ज्ञान के अलावा संसार की अन्य कोई भी शक्ति उसे भवसागर से पार नहीं उतार सकती। कहा भी है संसार सागरं घोरं तर्तुमिच्छति यो नरः। ज्ञान नावं समासाद्य पारं याति सुखेन सः ॥ जो मनुष्य इस घोर संसार सागर को सुख पूर्वक तैर जाना चाहता है, उसे ज्ञान रूपी नौका का सहारा लेना चाहिए। वास्तव में ज्ञान के समान अद्भुत और दुर्लभ वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है। ज्ञान की महिमा की संसार के सभी शास्त्र एक स्वर से सराहना करते हैं और यह अतिशयोक्ति भी नहीं है। एक उक्ति से इसकी सचाई का अनुमान लगाया जा सकता है अज्ञानी क्षपयेत् कर्म यज्जन्म शत कोटिभिः । तज्ज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा निहन्त्यन्तर्मुहुर्तके । अर्थात् अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों को नाना प्रकार के कष्ट सहन करके और तपस्या करके सैकड़ों करोड़ों जन्मों में खपा सकता है, ज्ञानी पुरुष उन्हें तीन गुप्तियों से युक्त होकर मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध करके अन्तर्महुर्त में ही खपा डालता है , इसीलिए तो भक्त कामना करता है-- तमसो मा ज्योतिर्गमय । AAAAAAAARURasatAMAJBARJunswimmarawwwerinewsmawasaAAMARDANAJMANANAMAMIRIALASAMAJAINISAPAINSawinAM r riMovr- rrr-Nir Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy