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________________ श्री आनन्दा ग्रन्थ १६६ रूप में कहा जाये तो असत्य एक घास के ढेर के समान है, जिसे सत्य की एक चिनगारी ही भस्म कर डालती है। J 卵 श्री आनन्द अन्थ है आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सत्य का महत्त्व बतलाते हुए संस्कृत में एक श्लोक कहा गया है सत्येनार्कः प्रतपतिः सत्ये तिष्ठति मेदिनी । सत्यं चोक्तं परोधर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः ॥ सत्य मे ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्यभाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है । सत्य महान् धर्म है और अन्तरात्मा की सत्ता है। इसको दृढ़तापूर्वक ग्रहण कर लेने पर अन्य सव धर्म सरलता से आचरित हो सकते हैं किन्तु आवश्यक है कि सत्य केवल मनुष्य के वचन में ही न रहे, वह मन और क्रिया में भी आना चाहिए। क्योंकि मन में जो सोचा जाता है वह वचन में आता है और मन तथा वचन में आया हुआ क्रिया में उतरता है। ये तीनों योग एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है 'मणसच्चे वयसच्चे कायसच्चे । केवल वचन से बोला हुआ सत्य जीवन को उन्नत नहीं बना सकता, जब तक कि मन में सचाई न हो और उसी के अनुरूप आवरण न किया जाये कोई भी मानव तभी महामानव कहला सकता है जब कि उसके तीनों योगों में एकरूपता हो। इसीलिए मुमुक्षु पुरुष यह कामना करता है— 'असतो मा सद्गमय मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अर्थात् मेरे हृदय से असत्य को हटाकर उसमें सत्य को प्रतिष्ठित करो। '' अन्धकार का आशय प्रार्थना का दूसरा अंग है-तमसो मा ज्योतिर्गमय ! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। प्रश्न उठता है कि अन्धकार किसे कहते हैं और प्रकाश किसे ? उत्तर यही है कि अज्ञान अन्धकार है और ज्ञान प्रकाश । इसीलिए महापुरुष मनुष्य को अज्ञान का अन्धकार दूर करने की बार-बार प्रेरणा देते है तथा अपने ज्ञान की ज्योति जलाकर उसे मार्ग सुझाते हैं । न मानने पर वे उसे ताड़ना भी देते हैं, जैसा कि निम्नलिखित पद्य में झलकता है- पड़ा पर्दा जहालत का अकल की आंख पर तेरे । सुधा के खेत में तूने जहर का बीज क्यों बोया ? अरे मतिमंद अज्ञानी जन्म प्रभुभक्ति बिन खोया || Jain Education International कहा है- 'अरे निर्बुद्धि ! तेरी अकल पर अज्ञान का यह कैसा परदा पड़ा हुआ है? इसी के कारण तुझे उचित अनुचित का भी ज्ञान नहीं रहा और तूने अमृत के इस खेत में विष का बीज बो दिया अपना समग्र जीवन ही तूने ईश्वर की भक्ति के अभाव में निरर्थक खो दिया। आपको जिज्ञासा होगी कि अमृत का खेत और जहर का बीज क्या है ? बन्धुओ, यह मानव शरीर ही अमृत के बीज बोने का क्षेत्र है । अगर मनुष्य इस दुर्लभ जीवन को पाकर भी अपने मन के क्षेत्र में दान, शील, तप, भाव, भक्ति और वैराग्य आदि के बीज नहीं बोता तो उसे मोक्ष रूपी अमृत फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अमृतपान करने पर मनुष्य पुनः नहीं मरता, इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी पुनः पुनः जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । किन्तु अज्ञानी पुरुष ज्ञान के अभाव में इस बात को समझ नहीं पाता तथा जिस मन के क्षेत्र में अमृत के बीज बोने चाहिए, उसमें काम, क्रोध आदि जो आत्मा के लिए विष के बीज के समान हैं, उन्हें ही बोता रहता है । परिणाम यह होता है कि मोक्ष रूपी अमर फल की प्राप्ति के स्थान पर नरक, तियंच गति रूप विष फल प्राप्त करता है तथा पुनः पुनः जन्म और मरण के दुखों को भोगता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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