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________________ आपास प्रवर अभिनंदन आआनन्द ग्रन्थ ११ 3 आचार्यप्रवर श्री आनन्दॠषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व JU फ्र 九 १६२ नहीं । ज्ञान की साधना ऐसी सरल वस्तु नहीं है, जिसे इच्छा करते ही साध लिया जाये। इसके लिये बड़ा परिश्रम, बड़ी सावधानी और भारी स्थान की आवश्यकता रहती है। आहार के कुछ भाग का स्याग करना अर्थात् ऊनोदरी करना भी उसी का एक अंग है । अगर मनुष्य भोजन के प्रति अपनी गृद्धता तथा गहरी अभिरुचि को कम करे तो वह ज्ञान हासिल करने में कुछ कदम आगे बढ़ सकता है । क्योंकि अधिक खाने से निद्रा अधिक आती है तथा निद्रा की अधिकता के कारण बहुत-सा अमूल्य समय व्यर्थ चला जाता है। आशय यही है कि मनुष्य अगर केवल शरीर टिकाने का उद्देश्य रखते हुए कम खाये या शुद्ध और निरासक्त भावनाओं के साथ ऊनोदरी तप करे तो अप्रत्यक्ष में तप के उत्तम प्रभाव से तथा प्रत्यक्ष में अधिक खाने से प्रमाद और निद्रा की जो वृद्धि होती है, उसकी कमी से अपनी वृद्धि को निर्मल, चित्त को प्रसन्न तथा शरीर को स्कूर्तिमय रख सकेगा तथा ज्ञानाभ्यास में प्रगति कर सकेगा। साथ वस्तुओं की ओर से उसकी रुचि हट जायेगी तथा ज्ञानार्जन की ओर अभिरुचि बढ़ेगी । सुख प्राप्ति के तीन नुस्खे हकीम लुकमान से किसी ने पूछा- ' हकीम जी ! हमें आप ऐसे गुण बताइये कि जिनकी सहायता से हम सदा सुखी रहें। क्या आपकी हकीमी में ऐसे नुस्खे हैं ? रहना है तो केवल तीन बातों का पालन करो लुकमान ने चट से उत्तर दिया हैं क्यों नहीं, अभी बताये देता हूँ देखो! अगर तुम्हें सदा सुखी पहली कम खाओ, दूसरी गम खाओ, तीसरी नम जाओ। हकीम लुकमान की तीनों बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं। पहली बात उन्होंने कही कम लाओ। ऐसा क्यों ? इसलिये कि मनुष्य अगर कम खायेगा तो वह अनेक बीमारियों से बचा रहेगा। अधिक खाने से अजीर्ण होता है और अजीर्ण से कई बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं। इसके विपरीत अगर बुराक से कम खाया जाये तो कई बीमारियों बिना इलाज किये भी कट जाती हैं। आज के युग में तो कदम-कदम पर अस्पताल और हजारों डाक्टर हैं किन्तु प्राचीन काल में जबकि डाक्टर नहीं के बराबर ही थे, वैद्य ही लोगों की बीमारियों का नुस्खा होता था बीमार को लंघन करवाना। लंघन करवाने का कई-कई दिन तक खाने को नहीं देना । परिणाम फलस्वरूप असाध्य बीमारियां भी नष्ट हो जाया इलाज करते थे और उनका सर्वोत्तम अर्थ है - आवश्यकतानुसार मरीज को भी इसका कम चमत्कारिक नहीं होता था । लंघन के करती थी तथा जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर मैल जल जाने से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपवास की अग्नि में रोग भस्म हो जाता था तथा शरीर कुन्दन के समान दमकने लग जाता था। लंघन के पश्चात व्यक्ति अपने आपको पूर्ण स्वस्थ और रोगरहित पाता था । -- लुकमान की दूसरी बात थी- गम खाओ। आज अगर आपको कोई दो शब्द ऊंचे बोल दे तो आप उछल पड़ते हैं । चाहे आप उस समय स्थानक में संतों के समक्ष ही क्यों न खड़े हों। बिना संत या गुरु का लिहाज किये ही उस समय ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते हैं किन्तु परिणाम क्या होता है ? यही कि तू-तू-मैं-मैं से लेकर गाली-गालौज की नौबत आ जाती है पर अगर कहने वाले व्यक्ति की बातों को सुनकर भी आप उनका कोई उत्तर न दें तो ? तो बात बढ़ेगी नहीं और लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आयेगी । उलटे कहने वाले की कटु बातें या गालियां उसके पास ही रह जायेंगी । जैसा कि सीधी-सादी भाषा में कहा गया है- Jain Education International दीधा गाली एक है, पलट्यां होय अनेक । जो गाली देवे नहीं तो रहे एक की एक ॥ हकीम लुकमान की तीसरी हिदायत थी - नाम जाओ । नमना अर्थात् नम्रता रखना भी जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम नुस्खा है । जो व्यक्ति नम्र होता है, वह अपनी किसी भी कामना को पूरी करने में असफल नहीं होता । नम्रता में अद्वितीय शक्ति होती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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