SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कम खाए, सुख पाए १६१ भी माना गया है जो मन और रसना इन्द्रिय पर नियन्त्रण करके भावनाओं और विचारों को आसक्ति तथा लालसा से रहित बनाता हुआ आत्मा को शुद्ध करता है । अनोदरी का अर्थ है कहलायेगी ? दो कौर (कवल) अनोदरी का अर्थ कम खाना आप सोचेंगे कि थोड़ा-सा कम खाना भी क्या तपस्या भोजन में कम खा लिये तो कौन-सा तीर मार लिया जायेगा ? परन्तु बंधुओ, हमें इस विषय को तनिक गहराई से सोचना, समझना है । यह सही है कि खुराक में दो-चार कौर कम खाने से कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु अन्तर पड़ता है खाने के पीछे रही हुई लालसर कम होने से । आप जानते ही होंगे कि कर्मों का बंधन कार्य करने की अपेक्षा उसके पीछे रही हुई भावना से अधिक होता है। आसक्ति और लालसा का कम होना ही वास्तव में आंतरिक तप है। जैनागमों में तपश्चर्या का बड़ा भारी महत्व बताया और विशद वर्णन किया गया है तथा आत्मशुद्धि के साधनों में तप का स्थान सर्वोपरि माना गया है । तपश्चरण साधना का प्रमुख पथ है । यह आन्तरिक (आभ्यन्तर) और बाह्य दो भेदों में विभाजित है । प्रत्येक साधक तभी अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है, जबकि उसका जीवन तपोमय बने । तप का प्रभाव तपस्या के द्वारा आत्मा का समस्त कलुष उसी प्रकार धुल जाता है, जिस प्रकार आप साबुन के द्वारा अपने वस्त्रों को धो डालते हैं । दूसरे शब्दों में जिस प्रकार अग्नि में तप कर स्वर्ण निष्कलुष हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या की आग में आत्मा का समग्र मैल भी भस्म हो जाता है तथा आत्मा अपनी सहज ज्योति को प्राप्त कर लेती है। तपस्या से मनुष्य अपनी उच्च से उच्च अभिलाषा को पूर्ण कर सकता है । तप का प्रभाव अबाध्य और अप्रतिहत होता है । वह अपने मार्ग में आने वाली प्रवल से प्रबल बाधाओं को भी अल्पकाल में ही नष्ट कर देता है तथा देव एवं दानयों को अपने समक्ष झुका देता है। आहार का प्रयोजन सभी जानते हैं कि भोजन का प्रयोजन शरीर के निर्वाह के लिये आवश्यक है । संसार के प्रत्येक प्राणी का शरीर नैसर्गिक रूप से ही इस प्रकार का बना हुआ है कि आहार के अभाव में वह अधिक काल तक नहीं टिक सकता । इसलिये शरीर के प्रति रहे हुए ममत्व का परित्याग कर देने पर भी बड़े-बड़े महर्षियों को मुनियों को तथा योगी और तपस्वियों को भी लेना जरूरी होता है । किन्तु आज मानव यह भूल गया है साधना में सहायक होना ही है। चूंकि शरीर के अभाव में को काटने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता है। अतएव इसे पड़ती है । शरीर साध्य नहीं है, यह अन्य किसी एक उत्तमोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति का साधनमात्र है । शरीरयात्रा का निर्वाह करने के लिये बहार कि इस शरीर का प्रयोजन केवल आत्मकोई भी धर्मक्रिया, साधना या कर्मबंधनों टिके रहने मात्र के लिये ही खुराक देनी खेद की बात है कि आज का व्यक्ति इस बात को नहीं समझता। वह तो इस शरीर को अधिकसे अधिक सुख पहुँचाना अपना लक्ष्य मानता है और भोजन को उसका सर्वोपरि उत्तम साधन । परिणाम यह हुआ कि इस प्रयत्न में वह भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करता तथा मांस एवं मदिरा आदि निकृष्ट पदार्थों का सेवन भी निस्संकोच करता चला जाता है । जिह्वालोलुपता के वशीभूत होकर वह अधिकचीज का नाम है, इसे जानने से अधिक लाकर अपने शरीर को पुष्ट करना चाहता है तथा उनोदरी किस का भी प्रयत्न नहीं करता । इसका परिणाम क्या होता है? यही कि अधिक ठूस-ठूंस कर खाने से शरीर में स्कूति नहीं रहती, प्रमाद छाया रहता है और उसके कारण अध्यात्मसाधना गूलर का फूल बनी रहती है। मांस-मदिरा आदि का सेवन करने से तथा अधिक खाने से वृद्धि का ह्रास तो होता ही है, चित्त की समस्त वृत्तियां भी दूषित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य चाहे कि यह ज्ञानार्जन करे, तो क्या यह संभव है ? कदापि आचार्य प्रव Jain Education International अभिन्दन आआन 九 For Private & Personal Use Only El ॐ श्री आनन्द अथ www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy