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________________ संगति कीजे साधु की १८७ सज्जनों की संगति से दूसरा लाभ बौद्धिक विकास के रूप में होता है । संतों का अनुभव-ज्ञान बड़ा भारी होता है, अतः उनके मार्ग-दर्शन से बिगड़ता हुआ कार्य भी बन जाता है। सच्चे संत भले ही जबान से शिआ न दें पर उनके आचरण से भी मनुष्य को मूक शिक्षा मिलती रहती है तथा जीवन सत्पथ पर बढ़ता है। केवल किताबी ज्ञान ही मनुष्य को ऊंचा नहीं उठा सकता, जब तक कि उसका आचरण भी ज्ञानमय न हो जाये तथा इसके लिए संत-समागम आवश्यक है। बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं, जिनका असर जबान से कहने पर नहीं अपितु बुद्धिमत्ता से क्रियात्मक रूप द्वारा समझाने से होता है। तीसरा लाभ सत्संगति से यह होता है कि मनुष्य के मन के अनेक रोग मिट जाते हैं। मन के रोग क्या होते हैं ? इस विषय में जानने की आपको उत्सुकता होगी। यद्यपि वे आपसे छिपे नहीं हैं। आज सभी प्राणी इन रोगों से पीड़ित हैं पर उन्हें वे रोग नहीं मानते, तो मन के रोग हैं--क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, विषय-विकार, असहिष्णुता एवं उच्छं खलता आदि । यही सब संत-समागम या उनके सहवास से निर्मुल होते हैं। इसीलिए उन्हें मंगलमय तीर्थ कहा जाता है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है-- मुद मंगलमय सन्त समाजू । जिम जग जंगम तीरथ राजू ॥ सज्जनों की संगति का चौथा लाभ यह है कि उससे गुणरहित व्यक्ति भी गुणवान बन जाता है। इस विषय में हितोपदेश में एक श्लोक दिया गया है काचः काञ्चनससर्गाद्धत्ते मारकती द्युतिम् । तथा सत्सनिधानेन मूर्यो याति प्रवीणताम् ॥ सुवर्ण के सम्बन्ध से कांच भी सुन्दर रत्न की शोभा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार मुर्ख भी सज्जन के संसर्ग से चतुर हो जाता है। मनुष्य कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर ले और अपनी तर्कशक्ति बढ़ा ले, उससे उसकी आत्मिक शक्ति नहीं बढ़ पाती । आज के युग में शिक्षित व्यक्ति ही अधिकतर नास्तिक पाये जाते हैं। नास्तिकों में न तो ईश्वर के प्रति आस्था होती है और न ही उनका धर्म, कर्म, लोक, परलोक तथा पुण्य और पाप में विश्वास होता है। परिणाम यह होता है कि वे पापों से नहीं डरते तथा दिन-रात अपनी आत्मा को अवनति की ओर ले जाते हैं । इसके विपरीत जो व्यक्ति अशिक्षित होते हैं, किन्तु संत-समागम करते हैं, वे हृदय और विचारों से महान् बन जाते है। इसका कारण यही होता है कि सत्संगति से उनको देव, गुरु एवं धर्म में आस्था उत्पन्न हो जाती है और वे पूर्ण श्रद्धासहित जो भी क्रिया करते हैं, उसका उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए पूज्यपाद पं० मुनि श्री अमीऋषि जी महाराज ने कहा है उत्तम संग उमङ्ग धरी, सजिये सुप्रसङ्गः अनंग निवारे । ज्ञान वधे रू सधे जिन आन , . अज्ञान कुमति को मूल उखारे । शील संतोष क्षमा चित धीरज , पातक से नित राखत न्यारे । डारत दुःख भावोभव के रिख , अमृत सङ्गत उत्तम धारे । कवि ने मनुष्य को उद्बोधन दिया है कि सदा उत्साह और उमंग के साथ उत्तम पुरुषों की संगति करो और उनकी संगति से हृदय के भावों को निर्मल बनाते हुए विषय-विकारों का त्याग करो। आचार्यप्रवटा आभआचार्यप्रवड अभी श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दग्रन्थ عملا ميعاد ...AAR AARAMPARANILIALPANAamdaramaAAMAARAARADARAAJRANJAur Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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