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________________ asar .. Nandi..- .... . WAmaranMARINAKAM -www [मंगत जैसी रंगत, सत्संगति के लाभ, जावन-विकास में सत्संग का महत्त्व आदि पर गंभीर विचारण।।] DESI. ११ संगति कीजे साधु की गया कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के साथ ही विद्वत्ता, वीरता अथवा अन्य कोई उल्लेखनीय योग्यता लेकर नहीं आता । वह आगे जाकर जो कुछ भी बनता है, केवल संगति से ही बनता है। विद्वत्कुल में जन्म लेने वाला शिशु अगर कुसंगति में पड़ जाये तो चोर, डाकू, जुआरी और शरावी बन जाता है तथा हीनकुल में जन्म लेने वाला बालक सुसंगति पाकर महा विद्वान् और साधु पुरुष बनकर संसार के लोगों का श्रद्धापात्र बनता है । एक श्लोक में कहा गया है असज्जनः सज्जनसङ्गि सङ्गात् करोति दुःसाध्यमपीह लोके । पुष्पाश्रया शम्भुजटाधिरूढा पिपीलिका चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ॥ असज्जन भी सज्जनों की संगति से इस संसार में दुःसाध्य काम कर डालते हैं। फूलों के सहारे चींटी शंकर की जटा पर बैठकर चन्द्रमा का चुम्बन लेने पहुंच जाती है। कहने का अभिप्राय यही है कि सत्संगति से न हो सकने वाला काम भी सहज और संभव हो जाता है । अगर व्यक्ति सदा श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहे तो अज्ञान, अहंकार आदि अनेक दुर्गुण तो उसके नष्ट होते ही हैं, उसे मुक्ति के सच्चे मार्ग की पहचान भी होती है, जिसको पाकर वह अपने मानवजीवन को सार्थक कर सकता है। श्री भर्तृहरि ने भी सत्संगति का बड़ा भारी महत्त्व बताते हुए कहा है जाड्यं धियोहरति सिञ्चति वाचि सत्यं, मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीति, सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुसाम् ॥ सत्संगति बुद्धि की जड़ता को नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है, मान बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता देती है, संसार में यश फैलाती है। सत्संगति मनुष्य का कौन सा उपकार नहीं करती है ? प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? इतना अधिक महत्त्व संत-समागम को किस लिये दिया गया है ? यही आपको आगे बताया जा रहा है । सत्संगति से लाभ सज्जन पुरुषों के समागम से पहला और सर्वोत्तम लाभ यह है कि वे शत्रु और मित्र दोनों से ही समान व्यवहार करते हैं। वे सदा दूसरों का हित ही करते हैं, कभी भी किसी अन्य की चाहे वह उनका कट्टर बैरी ही क्यों न हो, हानि नहीं करते, उसके अहित की भावना हृदय में भी नहीं लाते । इससे स्पष्ट है कि किन्हीं कारणों से, अगर वे किसी का हित न कर पायें तो भी उनके द्वारा अहित होने का भय नहीं रहता है। Nen का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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