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________________ सहयोग सर्वत्र आवश्यक १७३ बंधुओ ! मेरे कथन का सारांश आप समझ गये होंगे कि अगर मनुष्य अपने दुर्लभ मानवजीवन को सार्थक बनाना चाहता है तो उसे अपनी दृष्टि को दोषदृष्टि न बनाकर गुणदृष्टि बनानी चाहिये ताकि उसका हृदय सरलता पूर्वक सद्गुणों का संचय कर सके । दूसरी बात यह है कि यह जीवन एक महायात्रा है, इसे संपन्न करने के लिये किसी-न-किसी के सहारे की, सहयोग की आवश्यकता और ये तभी मिल सकते हैं, जब कि मनुष्य किसी भी अन्य व्यक्ति के प्रति भेदभाव की भावना न रखे तथा सबसे हिलमिल कर चले, मित्रता और सहयोग के आदान-प्रदान से कठिन यात्रा को सरल बनाता हुआ अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकता है और 'जीवो जीवस्य जीवनम्' की सत्यता सिद्ध कर सकता है । आनन्द-वचनामृत [] दोपों का दिग्दर्शन कराना बुरा नहीं है, किन्तु उसमें सद्भाव होना चाहिए । दुर्जन -- दूसरों के दोष उनकी निंदा और बुराई के लिए प्रकट करता है, जबकि सज्जन सुधार और निराकरण के लिए । अगरबत्ती भी धुंआ उगलती है और दीपक भी । पर एक का धुंआ सुवास फैलाता है, दूसरे का धुंआ कालिमा । 0 चंचल जल में चाहे जितना मुंह देखो उसमें प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार चंचल चित्त में चाहे जितनी प्रार्थना और ध्यान करो, किन्तु प्रभु का प्रतिबिम्ब नहीं झलक सकता । [] स्थिर जल में प्रतिछाया दीखती है, स्थिर मन में ही प्रभु का प्रतिरूप झलकता है। घास-फूस रहित स्वच्छ भूमि पर अग्नि का जोर नहीं बढ़ता, वैसे ही वासनारहित मन में विकारों की अग्नि का कोई जोर नहीं चल सकता । छिद्रवाले घट में चाहे जितना पानी डालो, एक बंद भी पानी उसमें नहीं टिकता, वैसे ही लोभ और अहंकार के छिद्रयुक्त हृदय में चाहे जितना उपदेश दो किन्तु उसमें एक बात भी ठहर नहीं सकती । 0 खिले हुए फूल को सभी चाहते हैं, मुर्झाये फूल को कोई देखना भी नहीं चाहता । इसी प्रकार प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति को सभी चाहते हैं, जिसके चेहरे पर त्यौरियां चढ़ी हों, अथवा उदासी छाई हो उसको कोई भी देखना नहीं चाहता । सच्चा दान वह है जिसके लिए हृदय के भीतर से प्रेरणा उमड़े और देने पर मन आनन्द से भर जाये । पैसा देकर जैसे कोई वस्तु खरीदी जाती है, वैसे ही अगर दान देकर यश और प्रतिष्ठा खरीदने की भावना हो तो वह दान नहीं, एक व्यापार है, एक सौदा है । दूध में तेजाब या विष मिलने से जो दोष दूध में आता है, दान में नाम की भूख मिलने से वही दोष दान में आ जाता है । Jain Education International ☆ आचार्य प्रव आमान व आमदन आआनंदी आद ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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