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________________ [संसार में सहयोग का महत्व, अकेला कुछ नहीं कर सकता । सहयोग लेना और देना आवश्यक है, गुणों का सन्मान करना, शक्ति का सदुपयोग करना आदि जीवन स्पशी विवेचन] ७ सहयोग सर्वत्र आवश्यक संसार के प्रकार ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार के संसार बताये गए हैं चउविहे संसारे पण्णत्ते तं जहा—णेरइएसंसारे, तिरिक्ख जोणियसंसारे, मणुयसंसारे, देव संसारे । अर्थात् संसार चार प्रकार के हैं-नरक संसार, तिर्यच संसार, मनुष्य संसार और देव संसार । नरकगति में जीव को कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, इसका वर्णन करना भी संभव नहीं है। रातदिन के दुःखों के महासागर में डूबते-उतराते रहते हैं। एक स्वास लेने के जितने समय में भी उन्हें शांति नसीब नहीं होती। इसी प्रकार तिर्यंच गति में भी जीव नाना प्रकार के कष्ट भोगता है तथा परतन्त्रता में जीवन बिताता है। कभी-कभी पूर्वकृत पुण्यों के बल पर जीव स्वर्ग में जा पहुँचता है। पर वहाँ भी अपनी करनी के अनुसार देव पद प्राप्त करता है। कोई आभियोगिक चाकर देव बनता है और कोई हुक्म प्रदान करने वाला इन्द्र । चाकर देवताओं को भी अपने से उच्च पद वालों की आज्ञा माननी पड़ती है तथा उनके अनुशासन में रहना होता है। इसके अलावा जब तक उनके पुण्य कर्मों का उदय होता है तभी तक वे स्वर्गीय सुखों का उपयोग करते हैं और ज्योंही वह पुण्यकोष रिक्त हुआ, पुनः जन्म-मरण के चक्कर में में पड़ते हैं। नरक में जीव पाप कर्मों के उदय के कारण असहनीय दुःख भोगता है और स्वर्ग में संचित पुण्यों के बल पर सुखों का अनुभव करता है। किन्तु वे सुख अनित्य होते हैं तथा देवपर्याय की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। उन सुखों में जीव इतना तल्लीन हो जाता है कि स्थायी और शाश्वत सुख के बारे में सोच ही नहीं पाता है, न ही उनके लिये कुछ प्रयत्न ही कर सकता है । यह कार्य करता है मनुष्य पर्याय में आकर । मनुष्यसंसार नरक और देव संसार दोनों से भिन्न है। यहां अँधेरा भी है और उजेला भी है। दुःख भी है और सुख भी, पाप भी यहां है और पुण्य भी यहीं। यह वह चौराहा है जहां से जीव अपनी करनी के अनुसार नरकगति तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति किसी को भी प्राप्त कर सकता है। कुसंगति में रहकर नरक और तिर्यच में होने वाले कष्टों को भोगता है तथा सत्संग की प्राप्ति होने पर अपने जीवन को पवित्र बनाता हुआ मोक्ष की भी प्राप्ति कर लेता है। सहयोग की आवश्यकता मानवजीवन में सहयोग का बड़ा भारी महत्व है। बालक जन्म लेने के साथ ही सहयोग की अपेक्षा रखता है। सर्वप्रथम वह अपने माता-पिता के सहयोग पर निर्भर होता है और उसके पश्चात् LOD आचार्यप्रवर अभिनआचार्यप्रवरखम श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द One Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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