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________________ AAAAA Gana भावार्यप्रवअभिआचार्यप्रवभिन श्राआनन्दान्थ५ श्रीआनन्दग्रन्थ Aiovivrrierwwmwwwmarwrt.iNevivonomiviroyVAvavivarianiya १६८ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व Apr जिस व्यक्ति के मन और वचन में मधुरता होती है, वह अपने शरीर से भी किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता । उसके हाथ-पैर केवल अन्य प्राणियों की रक्षा के लिये, उन्हें आश्रय देने के लिये तथा उनके कष्टों का निवारण करने के लिये ही उठते हैं, किसी को हानि पहुंचाने के लिये नहीं। कहने का आशय यही है कि जो व्यक्ति वाणी के महत्व को भली-भाँति समझ लेता है, वह अपने हृदय को उसके अनुरूप बनाये बिना नहीं रह सकता । वह सदा कोमल और निरवध भाषा का ही प्रयोग करता है तथा निरर्थक तर्क-वितर्क और वितंडावाद से परे रहता है। उसकी जिह्वा से औरों को संताप देने वाले शब्द कभी नहीं निकलते और न ही वह वैर-विरोध और आपसी कटुता को बढ़ाने वाले झमेलों में पड़ता है। उसे पूर्ण विश्वास होता है __ लक्ष्मीर्वसति जिह्वाग्रे, जिह्वाग्रे मित्र बांधवः । जिह्वाग्रे बंधनं प्राप्तं जिह्वाग्रे मरणं ध्र वम् ॥ जीभ का अग्रभाग, जिसके द्वारा शब्दों का उच्चारण होता है, बहुत ही महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसके रा उच्चारित सत्य और प्रिय शब्दों से ही लक्ष्मी का आगमन हो सकता है तथा मित्र और हितैषियों से मधुर सम्बन्ध बना रहता है और इसके कुप्रयोग से कभी-कभी बंधनों में बंधना पड़ता है तथा मृत्यु का शिकार भी होना पड़ता है। इसलिये बंधुओ, अगर हमें अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाना है तथा इस लोक में यश और प्रतिष्ठा की प्राप्ति करते हुए परलोक में भी शुभगति पाना है तो हमें अपनी भाषाशक्ति के मूल्य को समझना पड़ेगा तथा प्रयत्न करना पड़ेगा कि हमारी जबान से निकला हआ एक भी शब्द निरर्थक न जाये तथा एक भी शब्द अन्य प्राणियों को पीड़ा-संताप पहुँचाने का कारण न बने । ऐसा करने पर ही हमारी आत्मा का कल्याण होगा। AUL ONLINDI आनन्द-वचनामृत 0 जो काम असंभव प्रतीत होता हो, जिसमें श्रम अधिक और लाभ कम हो, जिसका परिणाम अहितकर हो और जिसे करने पर भी लाभ की आशा न हो वैसा काम कभी भी प्रारंभ नहीं करना चाहिए। - विज्ञान-पराश्रित है, ज्ञान-स्वाश्रित है। वैज्ञानिक-किसी भी लक्ष्य का प्रयोग पहले दूसरे पर करता है, फिर अपने पर। ज्ञानी-किसी भी सत्य का प्रयोग पहले अपने पर करता है, फिर दूसरे पर । विज्ञान में स्वार्थ है। ज्ञान में--परमार्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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