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________________ जीवन - महल की नींव : विचार कोsहं कथमयं दोषः संसाराख्य उपागतः । न्यायेनेति परामर्शो विचार इति कथ्यते । J मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है ? मुझ में ये दोष क्यों आये ? संसार की वासनाएँ मुझ में क्यों आई ? इन सब बातों का युक्तिपूर्वक चिंतन करना विचार है । इस प्रकार के विचार से सत्य-असत्य का, हित-अहित का परिज्ञान होता है और उससे आत्मा को विश्रान्ति शान्ति मिलती है— विचाराद् ज्ञायते तत्त्वं तत्त्वाद् विश्रान्तिरात्मनि । २ विचार और भावना विचार जब मन में बार-बार स्फुरित होने लगता है, नदी में जैसे लहर-पर-लहर उठने लगती हैं तो वे लहरें एक वेग का रूप धारण कर लेती हैं, उसी प्रकार पुनः पुनः उठता हुआ विचार जब मन को अपने संस्कारों से प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण कर लेता है । विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर रूप । वैसे सुनने में, बोलचाल में विचार, भावना एवं ध्यान समान अर्थ वाले शब्द प्रतीत होते हैं किंतु तीनों एक दूसरे के आगे-आगे बढ़ने वाले चिन्तनात्मक संस्कार बनते जाते हैं। अतः तीनों के अर्थ में अन्तर है । विचार के बाद भावना, भावना के बाद ध्यान ! यह इसका क्रम है । जीवन-निर्माण में विचार का जो महत्व है, वह चिन्तन एवं भावना के रूप में ही है। बाइबिल में कहा है- 'मनुष्य वैसा ही बन जाता है, जैसे उसके विचार होते हैं ।' विचार आचार का निर्माण करते हैं, मनुष्य को बनाते हैं इन सब उक्तियों का सार विचार को भावना के रूप में प्रकट करने से ही है । मैंने एक बार कहा था १ २ ३ ४ १६३ जैसा संचा दीजिए, वैसा हो आकार । मानव वैसा ही बने, जैसा रहे विचार ॥ विचार का महत्व सिर्फ विचार के रूप में नहीं, किन्तु सद्विचार, सुविचार या चिंतन-मनन के रूप में है और चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारण करते हैं । भावना संस्कार बनाती है, उससे जीवन का महत्वपूर्ण निर्माण होता है। इसलिए मैं आपको विचार से भावना की ओर मोड़ना चाहता हूँ । भव और भाव भाव शब्द से भावना बना है, इसी का तुलनात्मक शब्द है--भव ! दीखने में बोलने में भव एवं भाव में एक मात्रा का अन्तर है, किन्तु यही एक महान् अंतर है । भव का अर्थ है संसार और भाव का अर्थ है विचार ! भव रोग है, भाव उसकी चिकित्सा है । आचार्यों ने बताया है Jain Education International भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः इति भवः संसारः । ३ कर्म के वशीभूत हुए प्राणी जिसमें जन्म-मरण धारण करते हैं, भ्रमण करते हैं, चक्कर काटते हैं, वह संसार-भव है और भाव का अर्थ है मन की प्रवृत्ति भावोऽन्तःकरणस्य प्रवृत्तिविशेषः । ४ योगवाशिष्ठ २१४१५० वही २|१४|५३ पंचाशकसूत्र १, (अभिधान - राजेन्द्र कोष भाग ५, भव शब्द ) सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. १५ की टीका आचार्य प्रव श्री आनन्द 30 卐 अभिनन्दन ग्राआनन्दन ग्रन्थ अन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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